विधवा सशक्तिकरण के लिए चलेगा देशव्यापी आंदोलन

प्रसून लतांत/हेमलता म्हस्के 

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति पहले से ही दयनीय रहती आई है। अब नए दौर में भले ही वे पढ़-लिखकर आगे बढ़ रही हैं, लेकिन विधवा महिलाओं की स्थिति में कोई खास फर्क  नहीं आया है। ज्यादातर जगह घर-परिवार और समाज में होते हुए भी उनके वजूद का कोई महत्व नहीं होता। ज्यादातर विधवाएं अदृश्य ही रहती हैं। उनके दुख-दर्द की किसी को परवाह नहीं होती है। उनकी समस्या से भी किसी को कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन यह सुखद बात है कि अब विधवा प्रथा की आड़ में महिलाओं की स्वतंत्रता के हनन के खिलाफ आवाजें बुलंद होने लगी हैं। विधवाओं के भी आम महिलाओं की तरह जीने के अधिकार की मांग को लेकर अभियान चलने लगे हैं। महाराष्ट्र के एक गांव से शुरू हुए विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन का दायरा अब धीरे-धीरे बढऩे लगा है। 
इसी कड़ी में विश्व विधवा दिवस के मौके पर 23 जून को दिल्ली में राष्ट्रीय विमर्श का आयोजन  हुआ। विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन पूरे देश में कैसे फैले, केंद्र्र और राज्य सरकारें इस बारे में कारगर कानून बनाने की दिशा में कैसे आगे बढ़े ं और विधवाओं को आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए सरकारी योजनाएं कैसी हों आदि सवालों पर इस राष्ट्रीय विमर्श में गहन चर्चा हुई। इसमें महाराष्ट्र सहित हरियाणा, पंजाब उत्तर प्रदेश, हिमाचल, गुजरात, झारखंड, दिल्ली, उत्तराखंड, राजस्थान,  बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के समाज सेवक, लेखक और पत्रकार शामिल हुए। 
राष्ट्रीय विमर्श में हरियाणा राज्य महिला आयोग की चेयरपर्सन रेनू भाटिया मुख्य अतिथि थीं। उन्होंने कहा कि विधवाओं को किसी की मोहताज नहीं होना चाहिए। उन्हें अपनी आंतरिक शक्तिको पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने काहा कि जब तक हम दूसरों के भरोसे रहेंगे तब तक हमारे जीवन में बदलाव संभव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि अपने पति को खोने के बाद भी मैंने खुद को ताकतवर बनाने की लगातार कोशिश की, उसी का नतीजा है आज मुझे हरियाणा सरकार ने राज्य की महिलाओं को इन्साफ दिलाने वाले आयोग का नेतृत्व करने का जिम्मा सौंपा है।
इस कार्यक्रम में मुंबई से ऑनलाइन शामिल हुईं महाराष्ट्र विधान परिषद की उप सभापति डॉ. नीलम ताई गोरे ने विधवाओं के संरक्षण और सम्मान के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करने की जरूरत बताई। उन्होंने विधवा विरोधी आंदोलन के बारे में कहा कि आज हम एक खास मुकाम पर पहुंच गए हैं। लेकिन हमें और ज्यादा काम करने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। मानव की प्रगति विभिन्न चरणों में होती है। उनके अनुसार विधवाओं के लिए काम करने के लिए अभी भी बहुत प्रयास की आवश्यकता है।  उन्होंने लातूर भूकंप पीडि़तों का उदाहरण दिया जब कई महिलाएं विधवा हो गई थीं और उनकी विभिन्न समस्याएं लोगों के सामने आई थीं। आज भी कई जगहों पर किसी महिला के विधवा होने पर उसे महीनों तक घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता है। उसे अपने आसपास के कामकाज, कई फैसले लेने, जमीन-जायदाद के लिए दूसरे लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका नतीजा यह होता है कि कई बार संपत्ति या कई चीजों के अधिकार इन महिलाओं के हाथ में नहीं रह जाते हैं। यह सब बदलना चाहिए। 
देश के जाने माने समाज शास्त्री, विचारक और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में वरिष्ठ अध्यापक रहे प्रो. आनंद कुमार ने संदेश भेजकर कहा कि विधवाओं के हक के लिए समाज और सरकार दोनों उदासीन हैं जबकि उनकी यह संयुक्त जिम्मेदारी है। भारतीय संस्कृति का यह उपेक्षित पक्ष अविलंब हमारी चेतना का अंश बने और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का अनिवार्य पक्ष बन सके तो हम दोषमुक्तहो सकेंगे।
महाराष्ट्र में विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन में सक्रिय विधवा महिला सम्मान और संरक्षण कायदा अभियान के प्रमोद झिंझडे और राजू ने महाराष्ट्र में बरसों से चल रहे विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन की चर्चा करते हुए केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों से विधवाओं के हक में कारगर कानून बनाने की मांग की। राष्ट्रीय विमर्श में शामिल सभी प्रतिनिधियों ने अपने-अपने राज्यों में विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन शुरू करने का संकल्प किया। 
प्रसिद्ध लेखिका और एकल यायावर डॉ़ सुनीता ने बीज वक्तव्य में कहा कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में विधवा और रेडुआ दो शब्द दो अलग-अलग देश की ध्वनि जैसे हैं। स्त्री का विधवा होना स्त्री के समक्ष सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक दृष्टि से दुष्चक्र की स्थिति पैदा हो जाती है जबकि किसी पुरूष का रेडुआ होना दया का प्रकटीकरण बन जाता है। संयुक्त और एकल के तौर पर स्त्री सामाजिक चुनौतियों के सामने अपनी भावात्मक हत्या करती हैं। आर्थिक विपन्नता चारित्रिक मनोबल को आहत ही नहीं करते वस्तुत: घातक आघात पहुंचाते हैं। स्त्री की तुलना में पुरुष को कम चुनौती मिलती है। संघर्ष का ढब भी जुदा रहता है, क्योंकि पुरुष को परिवार के बाकी सदस्यों का भरपूर सहयोग और समर्थन हासिल रहता है।
राष्ट्रीय विमर्श में विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों ने पूरे देश में विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने के लिए वैधव्य मुक्तभारत अभियान का गठन किया। झारखंड की पत्रकार और समाज सेविका बरखा लकड़ा को राष्ट्रीय संयोजक चुना गया। अब वैधव्य मुक्त भारत अभियान के तहत हर राज्य में विधवा प्रथा विरोधी सभाएं की जाएंगी। समारोह में विधवा प्रथा के उन्मूलन में लगे  लोगों को सम्मानित किया गया। मौके पर महाराष्ट्र की दो विधवाओं को हरियाणा राज्य महिला आयोग की चेयरपर्सन रेणु भाटिया ने मंगल सूत्र पहना कर सम्मानित करके सामान्य जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया। इस कार्यक्रम का आयोजन विधवा महिला सम्मान संरक्षण कायदा अभियान, महाराष्ट्र सहित सावित्री बाई सेवा फाउंडेशन, पुणे,  महात्मा फुले समझ सेवा मंडल, सोलापुर, पूर्णांगिनी फाउंडेशन, औरंगाबाद,मेरा गांव मेरा देश फाउंडेशन,नई दिल्ली और पंचशील एनजीओ ने मिलकर किया।  
उल्लेखनीय है कि भारत में विधवाओं की हालत पहले तो बहुत खराब होती थी। जब तक सती प्रथा पर रोक नहीं लगी थी तब तक महिला को पति की मौत के बाद उसके संग चिता में जलने को विवश किया जाता था। इस बर्बर प्रथा पर राजा राम मोहन राय के प्रयासों के कारण गुलाम भारत में ही रोक लग गई थी। इसके बाद अब भले ही विधवा को सती होने को विवश नहीं किया जाता है, लेकिन ज्यादातर इलाकों खासकर पिछड़े क्षेत्रों में विधवा को जैसी जिंदगी मयस्सर होती है वह बदतर होती है। पति की मौत के बाद विधवा पर इतनी पाबंदियां लाद दी जाती हैं कि उसका जीना दूभर हो जाता है। उसका रहन-सहन सबकुछ बदल जाता है। साथ ही लोगों की नजर बदल जाती है। पति के जाते ही महिला की जिंदगी बदरंग हो जाती है।
राजा राम मोहन राय के बाद ईश्वरचंद्र विद्या सागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए प्रयास किया। उनके प्रयास से विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बना। तब परंपरावादियों ने उनका खूब विरोध किया था,  लेकिन वे पीछे नहीं हटे। ईश्वर चंद्र पर धर्म और ईश्वर के खिलाफ विद्र्रोह करने का आरोप लगाया गया, लेकिन उन्होंने गहन शोध और अध्ययन से साबित किया कि विधवा पुनर्विवाह धर्म सम्मत है। इसी के बाद विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाया गया। इस अधिनियम के कारण विधवा के फिर से शादी करने पर रोक हट गई। अब विधवाओं की शादी होने लगी है, लेकिन ज्यादातर विधवाओं के लिए यह संभव नहीं होता है। 
इसी तरह लड़कियों की शिक्षा के लिए पहली पाठशाला खोलने वाली सावित्री बाई फुले ने जबरन गर्भवती बना दी जाने वाली सैकड़ों विधवाओं को आत्महत्या से रोकने का अथक प्रयास किया। उन्होंने ऐसी  गर्भवती विधवाओं को शरण दी। उनके बच्चों की परवरिश की। विधवा को नई जिंदगी जीने का रास्ता दिखाया और पुनर्विवाह भी कराया। रमा बाई ने भी विधवाओं के कल्याण के लिए अपनी पूरी जिंदगी समर्पित कर दी। देखा जाए तो विधवाओं  के जीवन परिवर्तन के लिए गुलाम भारत में ही अनेक प्रयत्म किए गए, लेकिन देश के आजाद होने के बाद विधवाओं की जिंदगी बदलने और उन्हें संविधान में दिए गए समानता के अधिकारों से वंचित ही रखा जाता है।
मोटे तौर पर उत्तर भारत में विधवाएं दक्षिण भारत की विधवाओं की तुलना में अधिक भेदभाव और हाशिए पर रहती हैं। विधवा को न तो सामाजिक-आर्थिक सहयोग मिलता है और न ही परिवार और समाज से संकट में परामर्श और भावनात्मक सहारा मिलता है। हमारे देश में भ्रष्टाचार के कारण कई इलाकों में विधवाएं पेंशन योजनाओं का लाभ से वंचित रह जाती हैं। ज्यादातर विधवाएं विरासती अधिकारों से वंचित रहती हैं। अगर किसी विधवा के बेटे बड़े होते हैं तो उसकी मुश्किलें कम होती हैं, पर अगर उसकी कोई संतान नहीं है या केवल बेटियां हैं तो उसे अनेक समस्याएं झेलनी पड़ती हैं। हालांकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1969 ने महिलाओं को पुरुषों के साथ समान रूप से विरासत पाने का पात्र बना दिया है और कुछ राज्यों ने विरासत कानून में समानता के प्रावधान किए गए हैं, लेकिन ज्यादातर विधवाएं अपने कानूनी अधिकारों से वंचित ही रहती हैं।
पति की मृत्यु के बाद विधवा को माता-पिता के घर या अपने भाइयों के पास 'वापसीÓ करने की कोई आजादी नहीं होती है। वह अपने पति के गांव में ही रहती है चाहे उसके पास जमीन या संपत्ति हो या नहीं। कुछ जातियां विधवा के पुनर्विवाह पर रोक लगाती हैं। अन्य लोग इसकी अनुमति देते हैं बशर्ते यिह परिवार के भीतर हो। यदि कोई विधवा दूसरी शादी कर लेती है तो वह अपने बच्चों के साथ-साथ संपत्ति से भी हाथ धो बैठती है। विधवाओं को सभी सौंदर्य प्रसाधनों का त्याग करके फीके रंग के कपड़े पहनने पड़ते हंै। विधवाओं को अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन अब उम्मीद जगी है कि दिल्ली के राष्ट्रीय विमर्श में विधवा प्रथा के खिलाफ उठी आवाज केंद्र और राज्य सरकारों तक पहुंचेगी। इस मामले में कुछ सकारात्मक पहले होग, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।  

बॉक्स
महाराष्ट्र ने दिखाई नई राह
इधर, जागरुकता के तहत महाराष्ट्र में विधवा प्रथा को लेकर सामाजिक बदलाव की बयार चल पड़ी। पिछले साल यानी 8 मार्च, 2022 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले की हेरवाड पंचायत ने विधवाओं के हक में एक ऐसा प्रस्ताव पारित किया कि विधवाओं पर विधवा प्रथा के रस्में जबरन नहीं थोपी जाएंगी। इसके तहत अब विधवा का मंगलसूत्र नहीं उतारा जाता है और न ही चूडिय़ां नहीं तोड़ी जाती हैं। उन्हें पहले की तरह ही सामान्य जीवन जीने का मौका दिया जाता है। इस अभियान को राज्य सरकार का भी समर्थन मिल गया है। महाराष्ट्र सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर सभी पंचायतों से कहा है कि वे विधवाओं के मामले में हेरवाड़ पंचायत के प्रस्ताव को अमल में लाए।
महाराष्ट्र में विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन का सूत्रपात करने वाले शीर्षस्थ नायकों में से एक प्रमोद झिंझड़े कहते हैं कि 11 जून, 2020 मे हमारे एक कार्यकर्ता की मौत ही गई। तब कोरोना की शुरुआत हुई थी। उसके अंतिम संस्कार के समय  बीस पच्चीस लोग ही उपस्थित हो सके थे। अंतिम संस्कार के थोड़ी देर बाद दो तीन विधवाएं आईं और उन्होंने मृतक की पत्नी के माथे का सिंदूर मिटा दिया,चूडिय़ां तोड़ दीं और उसका मंगलसूत्र भी तोड़ दिया। हमारे दिवंगत कार्यकर्ता की पत्नी बेहद डरी हुई थी। वह विनती कर रही थी कि उसके साथ ऐसा व्यवहार मत करो। मंगलसूत्र मत निकालो। 
यह सब देखकर मुझे बहुत दु:ख हुआ और गुसा भी आया। ऐसा मन हुआ कि जाकर उन विधवा महिलाओं को लताड़ा जाए, लेकिन वह समय अलग था। इसी के बाद मेरे मन में आया संविधान सब लोगों को समान अधिकार देता है। फिर विधवाओं को इस अधिकार से क्यों वंचित किया जाता है। इसके बाद मैंने मन ही मन फैसला किया कि मैं विधवा प्रथा खत्म करने के लिए लगातार कोशिश करता रहूंगा। मुझे उस समय सती प्रथा बंद कराने वाले राजाराम मोहन रॉय  की याद आई।  उस दिन मुझे नींद नही आई थी। यह सब प्रसंग मैंने लिखकर रखा। 
इसके बाद जनवरी, 2022 में कोरोना का असर कम होने के बाद मैंने बहुत से लोगों को पत्र लिखकर बताया कि विधवा प्रथा खत्म करने के लिए कानून बनाने की जरूरत है। इसके लिए हम एक अभियान शुरू करना चाहते हैं। इच्छुक लोग संपर्क करें। यह पत्र सरपंच ग्रुप और एनजीओ ग्रुप पर बहुत  वायरल हुआ। बहुत  सारे  महिला और पुरुषों ने संपर्क  किया। इसके बाद  35/40 लोगो का वॉट्सएप ग्रुप तैयार किया गया और उसका नाम रखा विधवा महिला सन्मान और संरक्षण कायदा अभियान महाराष्ट्र। इस तरह  महाराष्ट्र से विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन की शुरुआत हुई। 
इसके बाद 6 अप्रैल, 2022 को नासिक में विधवा प्रथा निर्मूलन पर एक कार्यशाला हुई। इसमें तय हुआ कि विधवा प्रथा के खिलाफ महाराष्ट्र की पंचायतों में प्रस्ताव लाया जाए। महाराष्ट्र की 28 हजार ग्राम पंचायत सरपंच को सरपंच ग्रुप में पत्र भेजा। इसी के साथ हमने कोल्हापुर की  हेरवाड पंचायत के सरपंच सुरगौंडा पाटिल से संपर्क  किया और विधवा प्रथा खत्म करने के लिए उनका मार्गदर्शन किया। नतीजतन हेरवाड पंचायत विधवा प्रथा के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने वाली देश की पहली पंचायत बन गई।
प्रमोद झिंझड़े के अनुसार जब यह बात महाराष्ट्र की नेता सुप्रिया सुले तक पहुंची तो उन्होंने हेरवाड पंचायत के सरपंच, उप सरपंच और सदस्यों को सातारा में बुलाया और सबका अभिनंदन किया। फिर 17 मई, 2022 को हेरवाड पैटर्न संपूर्ण महाराष्ट्र में लागू करने का परिपत्रक सब सीईओ को भेजा। अभी तक करीब दस  हजार ग्राम पंचायतें विधवा प्रथा मुक्तहुई हैं। गोवा में लोगों का दो बार ऑन लाइन/वेबीनार के जरिए मंैने मार्गदर्शन किया तो  गोवा में  विधवा  प्रथा बंद करने के बारे में आठ ग्राम पंचायतों ने प्रस्ताव पास किया। जुलाई और अगस्त, 2023 में गोवा सरकार विधवा प्रथा निर्मूलन कानून पास  करने वाली है। भारत में  यह कानून बनाने वाला गोवा पहला राज्य बन जाएगा।
महाराष्ट्र में विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन चलने से महिलाओं में खुशी है। सावित्री बाई सेवा फाउंडेशन, पुणे की सचिव हेमलता म्हस्के ने महाराष्ट्र में विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन के नायकों की तलाश की और उनके सहयोग से विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने के मकसद से 14 मार्च, 2023 को पुणे में सभा आयोजित की। इसमें विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन के जनक प्रमोद झिझड़े का सार्वजनिक अभिनंदन किया। उसके बाद 23 जून को दिल्ली में राष्ट्रीय विमर्श की योजना बनी।  

Post a Comment

0 Comments