मार्क्स-लेनिनवाद की विचारधारा ने लगभग पूरी २०वीं शताब्दी दुनिया को प्रभावित किया। मु्ख्यतः मार्क्सवादियों को ही वामपंथी कहा जाता है। गैर-मार्क्सवादी वामपंथी भी अनेकानेक मार्क्सवादी प्रस्थापनाएं ही दुहराते हैं। इस मार्क्स-लेनिनवाद की पूरी कथा लोमहर्षक है। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक हावर्ड फास्ट ने, जो 1943 से 1956 ई. के बीच अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय नेता भी थे, अपनी पुस्तक 'द नेकेड गॉडः द राइटर एंड द कम्युनिस्ट पार्टी' में 1957 में ही लिखा था कि कम्युनिज्म की भयंकर त्रासदी को केवल साहित्य की भाषा में रखा जा सकता है। सामान्य भाषा या समाज विज्ञान की शब्दावली उसे पूरी तरह व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सकती!
फास्ट की यह बात व्यवहार में भी सच साबित हुई, जब उस के सोलह वर्ष बाद रूसी लेखक अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन की महान पुस्तक 'गुलाग आर्किपेलाग' दुनिया के सामने आयी। इस ने कम्युनिज्म की पूरी विडंबना को जिस तरह मानो एक विराट शीशे में उतार दिया, वैसा कोई अन्य लेखन नहीं कर सका। इसीलिए इस पुस्तक को बीसवीं शती का सब से महान कथा-इतर, नॉन-फिक्शन ग्रंथ माना गया। कम्युनिज्म को संपूर्ण रूप में समझने के लिए सचमुच इस पुस्तक का कोई विकल्प नहीं है।
वस्तुत:, कम्युनिज्म की सैद्धांतिक और व्यवहारिक समीक्षा के अनगिनत पक्ष हैं। फिर, भिन्न-भिन्न देशों के संदर्भ में अन्य अनगिनत विशिष्ट विश्लेषण भी संभव हैं। स्थानाभाव के कारण यहाँ उन सभी का संकेत भी करना संभव नहीं। अतः केवल भारत के संदर्भ में कुछ सामयिक बातें रखी जा रही हैं। (जिन्हें और जानने में रुचि हो, वे इस लेखक की पुस्तक ‘बुद्धिजीवियों की अफीम’, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, तथा 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहास लेखन', अक्षय प्रकाशन, नई दिल्ली, भी देख सकते हैं।)
बीसवीं सदी में लगभग 30 देश और एक समय दुनिया का आधा क्षेत्रफल कम्युनिस्ट शासन में था। अब मुख्यतः केवल दो देशों में कम्युनिस्ट शासन है, यद्यपि कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था वहाँ भी तोड़ी जा चुकी है। सरसरी दृष्टि से एक बात सभी कम्युनिस्ट देशो में बिलकुल समान रही। वह थी: सर्वाधिकारवादी तानाशाही और सत्ता का क्रूर प्रयोग। 'वैज्ञानिक' सिद्धांत एवं बौद्धिकता के तमाम दावों के बावजूद कम्युनिस्ट लोग किसी भी देश में, एक क्षण के लिए भी, केवल विचार और तर्क के बल पर बहुसंख्यक जनता को अपने पक्ष में करने में सफल नहीं हुए।
प्रश्न उठता है: क्या कारण था कि कम्युनिस्ट देशों में, हर कीमत पर, सत्ता पर काबिज रहना सब से महत्वपूर्ण समझा गया? इतना कि उस के लिए अंतहीन, अमानवीय, वीभत्स अत्याचार किए गए और नैतिकता की सामान्य, सार्वभौमिक मान्यताओं को भी तिलांजलि दे दी गई? उत्तर है, कि क्योंकि वही एकमात्र विधि थी जिस से कम्युनिस्ट अपनी धारणाएं समाज पर लागू कर सकते थे! इसीलिए, हावर्ड फास्ट ने दुनिया भर के कम्युनिस्ट आंदोलनों, नेताओं आदि के अपने लंबे और प्रत्यक्ष अनुभव से यह लोमहर्षक निष्कर्ष दिया था कि कम्युनिस्ट पार्टी और इस की बनाई सांगठनिक, सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था “एक ऐसी मशीन है जिस में प्रायः सब से अच्छे लोग प्रवेश करते हैं, मगर अनिवार्यतः सब से बुरे लोगों में बदल जाते हैं।”
अतः बीसवीं शती के संपूर्ण, प्रमाणिक अनुभव के बाद यह मानना मूर्खता ही है कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिज्म किसी व्यापक मानववाद का रूप था। वास्तव में पूरा इतिहास आरंभ से ही दिखाता है कि जिन देशों में भी कम्युनिस्ट सत्ताएं बनीं, उन्होंने न केवल अपने देश के लोगों पर निर्मम अत्याचार किए, बल्कि वे सारतः पूरी की पूरी अपराधी परियोजना ही थे। अथवा, जल्द उस में तब्दील हो गए। कम्युनिज्म का घोषित लक्ष्य कुछ भी रहा हो, मगर नाजीवाद की तरह यह भी मानवता के अनेक ‘वर्गों’ को जीने के लायक नहीं मानता था। इसीलिए ‘वर्ग’-सिद्धांत मानने अथवा लेनिन, स्तालिन, माओ के पूजकों से सावधान रहना चाहिए। उन सब से, जो किसी न किसी तरह के सामाजिक विभाजन के आधार पर ही अपनी राजनीति बनाते हैं।
आज कुछ लोग कम्युनिस्ट इतिहास के काले पन्नो को ‘बीती बातें’ कह कर विचार करने से कतराते हैं। किंतु वे बातें अभी भी सामयिक हैं! विशेषकर भारत में। यहाँ की वर्तमान राजनीतिक-वैचारिक परंपरा उन विचारों पर आधारित है, जिसे नेहरूवाद कहा जाता है। नेहरूवाद पर सोवियत मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव जगजाहिर तथ्य है। ध्यान देना चाहिए कि आज भी भारतीय राजनीति में नेहरूवाद ही सर्वाधिक प्रभावी विचार है। देश-विदेश की अनेक समस्याओं पर हमारे अधिकांश नेता, सत्ताधारी और बुद्धिजीवी उसी प्रभाव में लिखते-बोलते रहते हैं। नीतियाँ बनाते हैं। समय के साथ कुछ शब्द, नारे, मुहावरे बदलते जरूर गए, किंतु भारतीय धर्म-चिंतन परंपरा के प्रति उन का दुराव या दूरी, तथा पश्चिमी नारों के प्रति उन का आग्रह यथावत है। इन में वे भी हैं जो नेहरू के निन्दक हैं, पर व्यवहार में उन के ही विचारों पर चल रहे हैं।
इसलिए, विविध कारणों से, भारत में मार्क्सवादी वैचारिकी और मानसिकता केवल अतीत नहीं, बल्कि समकालीन विडंबना है। नई पीढ़ी को आज भी अनेकानेक झूठ ही पढ़ाए जा रहे हैं। उदाहरणार्थ, स्वयं रूस में अब नवंबर 1917 की घटना को ‘कम्युनिस्टों द्वारा किया तख्ता-पलट’ कहा जाता है, किंतु हमारे विविध लेखक तथा नेता, जिन का शिक्षा-तंत्र पर वर्चस्व है, अभी भी उसे ‘समाजवादी क्रांति’ और ‘समाजवादी लोकतंत्र’ कह महिमामंडित करते हैं। भिन्न-भिन्न प्रसंगों में, अलग-अलग बहाने से, चतुराई पूर्वक स्कूल, कॉलेज की शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय, मीडिया और शोध संस्थाओं तक वामपंथी प्रचारकों और उनसे जाने-अनजाने प्रभावित अध्यापकों, पत्रकारों ने सभी विषयों का राजनीतिकरण किया हुआ है।
कुछ लोग पूछे जाने पर इस विकृत शिक्षण का बचाव 'लंबे समय से चल रही परंपरा' या ‘अच्छे उद्देश्य’ के नाम पर करते हैं। जो प्रमाण है कि कारण शैक्षिक नहीं, बल्कि राजनीतिक है। इस से हमारी नई पीढ़ियों की वैचारिक क्षमता को जो हानि हो रही है वह चिंता का विषय होना चाहिए। अन्यथा हम सोवियत संघ के अंतिम दशकों में रूस की बौद्धिक जड़ता और दुर्गति वाली स्थिति में बने रहेंगे। चाहे इस का हमें इस का भान हो या न हो।
यह बौद्धिक जड़ता ही है कि इतिहास के कूड़ेदान में जा चुका कम्युनिस्ट समाजवाद अभी भी हमारे स्कूलों, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों की शोभा बढ़ा रहा है। किंतु भारत और पूरी दुनिया को दशकों से साँसत में डाले हुए इस्लामी आतंकवाद का कोई अध्ययन-अध्यापन नहीं होता! अंतरराष्ट्रीय ‘जिहाद-फैक्टरी’ कहलाने वाले मदरसे पाकिस्तान में विमर्श, नीति-निर्णय के विषय बन सकते हैं। किंतु भारत में यह संपूर्ण विषय ही वर्जित है। भारत में राजनीति शास्त्र का छात्र ‘जिहादी आतंक’ पर कुछ नहीं जान सकता, किंतु उसे रूस, चीन, तथा समाजवादी इतिहास के बारे में तरह-तरह की झूठी बातें अभी भी पढ़ने को विवश किया जाता है। यह शिक्षा में वामपंथी राजनीतिक प्रपंच को बढ़ावा देकर नई पीढ़ी को बौद्धिक हानि पहुँचाना है। दुर्भाग्यवश इस के प्रति भारत की गैर-वामपंथी राजनीतिक धाराएं भी उदासीन हैं।
यह इसीलिए भी संभव हो रहा है क्योंकि देश में चल रही राजनीतिक परंपरा कम्युनिस्ट मानसिकता से गहरे प्रभावित है। नेताओं के जन्म-दिन और मरण-दिन पर, तथा विविध बहानों से अखबारों में नेताओं की तस्वीर छापने और पार्टी प्रचार करते रहने में राजकोष का अरबों रूपया सालाना बर्बाद किया जाता है। पार्टीबंदी के लिए संसाधनों की ऐसी बर्बादी किसी गैर-कम्युनिस्ट देश में नहीं होती। सार्वजनिक धन से इस तरह लोगों पर जबरन किन्हीं पार्टी नेताओं की ‘महानता’ थोपना पश्चिमी पूँजीवादी नहीं, वरन रूसी-चीनी कम्युनिस्ट बीमारी है। जो भारत में अनेक अन्य दलों ने भी अपना ली है।
स्वतंत्र भारत का औपचारिक शासन तंत्र अवश्य ब्रिटिश अनुकरण है। हमारा पूरा पेनल कोड, शासकीय पद-सोपान और संविधान भी इस का प्रमाण है। पर व्यवहार में शासन की आत्मा प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी के कम्युनिज्म-मोह के कारण और सत्ता पर उन के लंबे एकछत्र प्रभाव के कारण सोवियत तौर-तरीकों से अनुप्राणित हो गई।
ध्यान देना चाहिए कि नेहरूजी का शासन काल, अर्थात स्वतंत्र भारत के प्रथम १८ वर्ष नए गणतंत्र का निर्माण काल था। उस समय जो बुरी परंपराएं बनी, या जो अच्छी परंपराएं नहीं बन सकीं, उस ने आने वाले शासकों, प्रशासकों, मीडिया, शैक्षिक संस्थानों, आदि के लिए एक सुनिश्चित, अनुकरणीय उदाहरण बना दिया। अब आदतवश भी पूरी व्यवस्था उसी ढर्रे पर चल रही है। किंतु यह सब न स्तरीय पश्चिमी लोकतंत्र है, न ही भारतीय हिन्दू परंपरा। यह सब तो घटिया कम्युनिज्म की दयनीय नकल है, जिस में पूरी राजनीतिक जमात – राजनीतिक दल, पत्रकार, नेता सभी – दशकों से लगी हुई है।
इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है। आखिर जिस चश्मे से हमारी दृष्टि बाधित है, उसी का दोष हमें कैसे दिखे! पर वस्तुत: हमारी शिक्षा व वैचारिकता में नेहरूवाद बहुत गहरे जमा हुआ है। योग्यता को दरकिनार कर ‘अपने’ आदमी को समितियों में, उच्च शैक्षिक पदों, संस्थाओं पर रखना ब्रिटिश नहीं, सोवियत परंपरा है। सभी भवनों, योजनाओं, स्थानों, आदि के नाम पार्टी नेताओं के नाम पर रखना वही पार्टी दासता है जो कम्युनिस्ट देशों का निरपवाद नियम था।
वह दासता केवल नामकरण तक सीमित न थी। कम्युनिस्ट देशों में जीवन का हरेक पक्ष किसी नेता की अंध-भक्ति पर ही आधारित था। विषय खेल-कूद हो या सिनेमा, दर्शन या परमाणु विज्ञान – हरेक में लेनिन, माओ के उद्धरणों के ‘मार्गदर्शन’ बिना कोई विमर्श या शोध संभव नहीं था। वही दासता यहाँ ‘प्रगतिवाद’ की अंधपूजा में झलकती रही, जो नेहरूवाद का ही दूसरा नाम है। पर मूलतः यह सोवियत मॉडल था और है। इसी में यह होता है कि किसी विद्वान का मूल्यांकन उस के कार्य पर नहीं, बल्कि पार्टी-नेता या उच्च अफसर की पसंद पर निर्भर हो। जो काम सोवियत संघ में कम्युनिस्ट कमिसार करते थे, वह यहाँ सत्ताधारी दल के प्रगतिशील नेता और उसके अनुचर अफसर, प्रोफेसर करते रहे। यह परंपरा नेहरूजी के शासन काल में आरंभ हुई और पूरी ठसक से स्थापित की गई। वह आज और जमकर चल रही है, जबकि सत्ता में दूसरे दल हैं।
यहाँ मार्क्सवादी प्रगतिवाद की विष-बेल स्वतः नहीं फली-फूली थी। उसे सप्रयास फैलाया और भारतीय परंपरा को नष्ट किया गया। यह इतने निकट काल की बात है कि कोई भी इस की प्रमाणिक जाँच स्वयं कर सकता है। नापसंद नेताओं, विद्वानों, पत्रकारों को ब्लैक-लिस्ट करना और विश्वस्त अनुचरों को बढ़ाना, पुरस्कृत करना – यह प्रवृत्ति नेहरूजी के समय ही आरंभ हुई। यह सोवियत कम्युनिज्म का भारतीय नेहरूपंथी रूप था। तदनुरूप स्वतंत्र विचार लेखकों को प्रताड़ित करना; उन का लेखन दबाना, लांछित करना जैसे घातक कार्य तभी शुरू हुए थे। सत्ता के प्रोत्साहन से ही सोवियतपंथी ‘प्रगतिवाद’ ने भारत के बौद्धिक जीवन को अपने अधीन कर लिया। वह आज भी उसी तरह चल रहा है।
जिन वामपंथी अंधविश्वासों से हमारी अर्थ-नीति, विदेश नीति, शिक्षा और साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ दशकों निर्देशित होती रहीं, उन का आज भी असर गहरा है। उन पर सम्यक दृष्टि डालने पर ही पता चलेगा कि स्वतंत्र भारत में अनेक ऊट-पटांग वैचारिक स्थितियों का आरंभ कहाँ है। और इस ने हमें मानसिक रूप से कितना दासवत् बना रखा है। हर नामकरण में नेहरू-नेहरू, या अब अटल-अटल, का प्रयोग एक विचारहीनता, मानसिक जड़ता और आत्मसम्मानहीनता है – यह समझना आवश्यक है।
यहाँ प्रशासन में हर स्तर पर समिति प्रणाली का उपयोग केवल ऊपर से ही ब्रिटिश अनुकरण है। हर कमिटी में चार चहेतों को रखना, उन से मनचाही बात लिखवाना तथा उसे गंभीर ‘दस्तावेज’ बता कर जनता को धोखा देना निरी सोवियत परंपरा है। आज यह बीमारी यहाँ इतनी फैल चुकी है कि लोहियावादी, या संघ-भाजपाई, उन के समर्थक बुद्धिजीवी आदि भी वही कर रहे हैं। योग्यता के बदले चापलूसी को प्रोत्साहन तथा नितांत दिखावटी, अंतर्विरोधी, नारेबाजी या नकलची मुहावरों से भरे कागजों को राष्ट्रीय दस्तावेज बता कर लोगों को दिग्भ्रमित करना।
यहाँ पहले कम्युनिस्ट तौर-तरीकों के अभ्यस्त ‘प्रगतिवादी’ प्रोफेसर तो सोवियत लेखक जैसी अनुचरी भूमिका निभाने के कारण जम कर यही करते रहे हैं। हर भवन या योजना का नाम नेहरू या इंदिरा के नाम पर करने का पुरस्कार उन्हें पता था। सदैव अकादमियों, आयोगों, ट्रस्टों में पद और आपसी सहयोग से पार्टी-बंदी वाले ‘प्रगतिशीलों’ का जीवन सुख-चैन से चलते रहना। चाहे देश की बौद्धिक क्षमता रसातल में चली जाए। उन्हें इस की उसी तरह चिंता नहीं, जैसे सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी को नहीं थी। अथवा उन्हें इस का कोई भान न था। पर रूस के लिए परिणाम तो वही हुआ। अब वही परंपरा भाजपाइयों ने चला रखी है। परन्तु यदि हम भारतवासी नहीं चेते तो कई मामलों में हमारी दुर्गति भी वैसी ही हो सकती है। केवल आर्थिक 'विकास' किसी देश के सामाजिक स्वास्थ्य की गारंटी नहीं है, यह न केवल सोवियत संघ के उदाहरण से, बल्कि आज यूरोप अमेरिका के उदाहरणों से भी देखा जा सकता है। एक विचित्र किस्म की वामपंथी 'वोक' बौद्धिकता के रोग ने उन के सामाजिक ताने-बाने को उलझा कर रख दिया है।
भारत में भी उस 'वोक' मानसिकता की जड़ें फैल रही हैं। नेहरूवादी वर्चस्व के समय से ही, यहाँ प्रगतिवाद के नाम पर हर तरह के विजातीय सिद्धांत और मानसिकता को तरह-तरह की विदेशी एजेंसियाँ प्रोत्साहन देती रही थीं। अब उसी को अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी राजनीति, उस के दावा संगठन, और मिशनरी संगठन अपने स्वार्थों के लिए चतुराई से पोषित कर रहे हैं। वे मुस्लिम देशों और समाजों में इस तरह के सेक्यूलरवाद, अल्पसंख्यकवाद, आदि को तरजीह नहीं देते। पर हमें इन्हीं चीजों को महत्व देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। क्यों?
केवल इसलिए कि हमें विचारों में दास बनाए रख कर वे अपना उल्लू सीधा करते हैं। इस कार्य में उन्हें भारत में स्थापित पारंपरिक नेहरूवादी विचारणाएं, चलन, भंगिमाएं एक स्थापित हैंडिल का काम देती हैं। साथ ही, अपने अनुचित कार्यों (जैसे, मिशनरियों, तबलीगियों द्वारा संगठित धर्मांतरण का धंधा चलाते रहने) के लिए एक सशक्त आड़ देती है। ऐसे कार्यों पर किसी भी आपत्ति का उत्तर पारंपरिक वामपंथी दलीलों से को अच्छी तरह दिया जा सकता है। कि जो लोग धर्मांतरण का विरोध कर रहे हैं वे 'हिन्दू-पुनरुत्थानवादी' हैं; कि वे 'पिछड़े जमाने की मानसिकता' वाले हैं; वे 'प्रगति के विरोधी' हैं; उन्हें 'गरीब जनता की समस्याओं की चिंता नहीं' है; वे मिशनरी संगठनों के 'सेवा कार्यों' को नहीं देखते; वे भारत की 'सामासिक संस्कृति' के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं; वे 'समुदायों में झगड़े फैलाते हैं'; आदि आदि। इसी तर्क प्रणाली का सहारा लेकर अंतर्राष्ट्रीय इस्लामवादी भी यहाँ जिहादी आतंकवाद पर चिंता करने वालों को नीचा दिखाते हैं।
चूँकि यहाँ गैर-वामपंथी राजनीतिक धाराओं ने कभी मार्क्सवाद, कम्युनिस्ट सिद्धांत एवं इतिहास, इस्लाम का सिद्धांत एवं इतिहास, तथा क्रिश्चियनिटी का सिद्धांत एवं इतिहास जानने समझने की चिन्ता नहीं की, इसलिए भी नेहरूवादी वामपंथी वैचारिकता प्रभावी बनी रही है। क्योंकि सारत: नेहरूवाद यहाँ तमाम हिन्दू-विरोधी मतवादों का सरपरस्त रहा है।
साथ ही, सोवियत संघ और कम्युनिस्ट शासनों के पतन के बाद मार्क्सवादियों ने अपनी शब्दावली भी काफी कुछ बदली है। चाहे, उन का भाव लगभग पहले जैसा यथावत है। अब कम्युनिस्ट नेता भी मार्क्स या लेनिन की प्रस्थापनाएं नहीं दुहराते। उस के स्थान पर उन्होंने भारत के अन्य सभ्यतागत शत्रुओं के मुहावरे उठा लिए हैं। इसलिए अब वे सेक्यूलरिज्म, माइनॉरिटी राइट्स, मानव अधिकार, वीमेन राइट्स, दलितवाद, आदि के नारे लगाते हैं। यह सभी नारे भारत की हिन्दू सभ्यता को विखंडित करने के लिए ही प्रयोग किए जा रहे हैं। इसीलिए यहाँ इन का सब से अधिक उपयोग क्रिश्चियन-मिशनरी, तबलीगी, इस्लामी राजनीतिक और पश्चिमी साम्राज्यवादी तंत्र करते रहे हैं।
यद्यपि पहले भी कम्युनिस्ट लोग इस्लाम के प्रति सदय थे, किंतु सोवियत विघटन के बाद यह बढ़ गया। भारत ही नहीं, कई देशों में कम्युनिस्टों ने अब अपनी शक्ति इस्लाम को समर्पित कर दी है। अधिक जानने के लिए प्रसिद्ध 'फ्रंटपेज मैगजीन' के मुख्य संपादक डेविड होरोवित्ज की पुस्तक "अनहोली एलायंसः रेडिकल इस्लाम एंड द अमेरिकन लेफ्ट" (2006) से जायजा ले सकते हैं। होरोवित्ज ने अपने पचास वर्ष के अनुभव के आधार पर यह पुस्तक लिखी है। अंध-अमेरिका विरोध के नाम पर कम्युनिस्ट पहले भी अयातुल्ला खुमैनी जैसे इस्लामी तानाशाहों का समर्थन करते रहते थे। अब वही उन का एकमात्र अवलंब है जिस कारण वे हुर्रियत से लेकर एर्दोआन तक हर तरह के देसी-विदेशी इस्लामवादियों के पक्ष में बोलते दिखते हैं।
इसलिए आज हिन्दू सभ्यता के रणनीतिक शत्रु जितनी शिद्दत से हिन्दू समाज के विरुद्ध वितृष्णा फैलाते हैं, उतनी ही सहजता से भारत में हर तरह के वामपंथियों, सेक्यूलरवादियों को तरह-तरह से पुरस्कृत करते और सम्मान देते हैं। अपने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक संसाधन और धन बल पर उन्हें मंच व प्रचार देकर उन का कद ऊँचा बनाते और बनाए रखते रहे हैं। चाहे सभी सेक्यूलर वामपंथी इसे न समझते हों, किंतु यह अघोषित मोर्चेबंदी हिन्दू भारत के विरुद्ध है।
बहरहाल, जैसे अर्थ-व्यवस्था में नेहरूवाद को नमस्कार (१९९१ में नरसिंह राव की नीतियों से) करने के बाद ही भारत का आत्मविश्वास बढ़ा और काफी भौतिक उन्नति संभव हुई, उसी तरह चिंतन, विचार और शिक्षा क्षेत्र को भी नेहरूवादी हिन्दू-विरोधी मकड़जाल से मुक्त करके ही भारत का राजनीतिक-बौद्धिक वैचारिक विकास होगा। इस सत्य को हम जितना जल्द समझ लें, उतना ही अच्छा होगा।
केवल पार्टीबंदी की जिद, जो मूलतः कम्युनिस्ट मानसिकता है, भारत को कभी भी अपना सभ्यतागत गौरव नहीं दिला सकती। इस बुनियादी सत्य को समझकर संघ-भाजपा के सत्ताधीशों को वामपंथियों की नकल छोड़ कर भारतीय ज्ञान परंपरा की सीखों पर आधारित नीतियाँ अपनानी चाहिए।
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