भ्रष्टाचार कौन खत्म करना चाहता है!

शंकर शरण

कर्नाटक के विधानसभा चुनाव ने भाजपा पर भी ‘40 फीसद कमीशन’ वाली पार्टी का तमगा लगा दिया। यदि यह आरोप सच हो तो कहना होगा कि न केवल इस्लाम-परस्ती यानी ‘तुष्टिकरण’ से बढ़कर ‘तृप्तिकरण’ में, बल्कि भ्रष्टाचार और अंध-नेता भक्ति में भी भाजपा ने कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया है। आरएसएस से जुड़े ‘संघ चिंतक’ जैसे लोग भी कहते हैं  कि ‘‘राजनीति की कोठरी ही काली है, जो इसमें जाएगा उसे कालिख लगेगी ही।’’
किंतु यह साफ गलत है। सरकारी कर्मचारियों द्वारा चुपचाप कुछ लेना और  चुराना सारी दुनिया में सदैव रहा है। किंतु आधुनिक लोकतंत्रों में नेताओं द्वारा पदों, ठेकों आदि की दलाली, नीलामी जैसा नियमित धंधा कुछ और चीज है। इसे सरलता से बंद किया जा सकता है। लेकिन उस पर सोचने के बदले, भारत में कुछ सत्ताधारी दलों ने भ्रष्टाचार को ऐसा संगठित रूप दे दिया है, जिसमें ‘पार्टी के लिए’ अरबों-खरबों रुपये का भ्रष्टाचार कराने वाले भी स्वच्छ कहे जाते हैं! इस का प्रारंभिक रूप पश्चिम बंगाल में सीपीएम ने बनाया, कि सत्तासीन कम्युनिस्ट नेता व्यक्तिगत रूप से ईमानदार दिखते थे, जबकि राज्यतंत्र को अनौपचारिक रूप से ऐसा बना डाला कि किसी नागरिक का कोई भी काम बिना पार्टी इकाई को चढ़ावा चढ़ाए नहीं हो सकता था! 
उससे सीख कर हरेक सियासी दल की 'प्रतिभाओं' ने ने कीर्तिमान बना डाले। फलस्वरूप आज दृश्य यह है कि हजारों-करोड़ रुपये के वारे-न्यारे करके भी वे अपने को मानो राजा हरिश्चन्द्र और महात्मा बुद्ध कहलाने का दंभ रखते हैं! शायर जलील की तर्ज पर : 'रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई'। यानी, पार्टी फंड के नाम पर बेतहाशा और  बेहिसाब धन अघोषित और अनुचित शर्तों पर, अदृश्य देशी-विदेशी स्रोतों से इकट्ठा करके भी ईमानदार कहलाना! 
सत्ताधारी पार्टियों के कारकून, और मूढ़ समर्थक इस भयावह कुकर्म का बचाव यह कहकर करते हैं कि ‘चुनाव लड़ने के लिए ऐसा करना पड़ता है’। परंतु यह बिलकुल झूठा बहाना है। पहले तो चुनाव लड़ने के लिए अपराध करने और अनैतिक काम करने की अनिवार्यता तो हमारी चुनाव प्रक्रिया में कहीं दर्ज नहीं है! 
दूसरे, दर्जनों लोकतांत्रिक देशों में चुनाव होते हैं, जहां किसी पार्टी को बेहिसाब धन की जरूरत नहीं पड़ती। वही पद्धति सरलता से यहां भी अपनाई जख सकती है, जिसमें एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में चुनाव लड़ने में किसी भी उम्मीदवार का पंद्रह-बीस लाख रुपयों से अधिक खर्च न हो। चूंकि सादी, सीधी और सरल चुनाव व्यवस्था करने के लिए जरूरी नियम, प्रतिबंध आदि सभी दलों पर समान लागू होंगे, इसलिए कोई आपत्ति भी नहीं कर सकेगा। बल्कि वैसी व्यवस्था से हर कहीं अच्छे उम्मीदवारों के भी चुनाव लड़ने और चुने जाने का मार्ग प्रशस्त होगा। 
पर, तीसरे, असल बात कुछ और है। हमारे देश में अनेक बड़ी पार्टियां नहीं चाहतीं कि उन्हें छोटे दलों या फिर अच्छे स्थानीय उम्मीदवारों से चुनौती मिले। भाजपा के ही एक चुनाव सुपरवाइजर के अनुसार आज के भाजपा नेता ने चुनाव लड़ने को इतना महंगा रूप दे दिया है कि स्वतंत्र उम्मीदवार क्या अच्छी-अच्छी पार्टियां तक चुनाव लड़ने की क्षमता खो रही हैं। यानी चुनाव लड़ने के लिए किसी भी दल या उम्मीदवार के पास बेहिसाब पैसा होने की जरूरत खुद भाजपा ने बनाई है!  इसके पीछे सत्ता पर एकाधिकार रखने की उनके नेता की चाल है। जो एकदम नाकाम हो जाएगी यदि चुनाव लड़ना इंग्लैंड या जापान की तरह सस्ता, आबंडरहीन और सरल बना दिया जाए। 
संगठित भ्रष्टाचार का दूसरा विराट रूप है सत्ताधारी दलों द्वारा बरसों बरस राजकीय संसाधनों को अपनी पार्टी और नेता के प्रचार में लगाना। उदाहरण के लिए सरकारी विभागोंऔर संस्थानों का अखबारों को विज्ञापन के नाम पर सत्तासीन नेता का नाम और फोटो नियमित रूप से लोगों के सामने फैलाते रहना। साथ ही, विज्ञापन देने की आड़ में मीडिया के एक वर्ग को सत्ताधारी के सामने पालतू या विवश बनाना। यानी, दोहरा कदाचार। 
एक बार देश के एक बड़े अखबार के कुल 32 पृष्ठों में से 23 पृष्ठों पर एक सत्ताधारी नेता की छोटी, बड़ी, आधे और पूरे पृष्ठों पर तस्वीरें थीं। सब कोई न कोई सूचना या ‘बधाई देने’ हेतु। लेकिन असली उद्देश्य बिलकुल साफ था - उस नेता और उसकी पार्टी का प्रचार। उन विज्ञापनों का केवल एक दिन बिल और केवल एक अखबार का बिल कम से कम दो-तीन करोड़ रुपये रहा होगा। और यह बिल सरकारी खजाने से गया। 
यदि देश के दर्जनों बड़े-छोटे अखबारों को भी जोड़ लें जिनमें उस दिन वे विज्ञापन थे, तो केवल एक दिन में शायद पचास-साठ करोड़ रुपये उड़ाए गए!  ऐसे जितने विज्ञापन पूरे वर्ष विविध पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों को जाते हैं, जिनमें सूचना नगण्य, और नेता समेत दल का प्रचार मुख्य रहता है, उन सबका हिसाब करें तो सरकारी खजाने के सालाना अरबों रुपये पार्टी और नेता के प्रचार में उड़ाए जाते हैं! वह भी जबकि यहां सरकारी तंत्र के पास अपने प्रचार-प्रकाशन, रेडियो, टी.वी. चैनल आदि हैं। 
दूसरी ओर, जिन रोजमर्रे बातों से लोग नियमित प्रभावित होते हैं – विविध दफ्तरों, यातायात, अस्पताल, आदि में – तो विविध कामों के लिए बदलते नियमों, शर्तों, पाबंदियों, आदि की जानकारी शायद ही कभी प्रमुखता से दी जाती है। फिर, असंख्य सूचनाएं, आवेदन फॉर्म, साइनबोर्ड, ट्रैफिक चेतावनी, आदि केवल अंग्रेजी में होती हैं। फलतः अधिकांश लोग असहाय, मुँहताज रहते हैं। यदि ‘जन-हित’ की चिन्ता होती, तो सब से पहले यह सब दुरुस्त और स्थानीय भाषाओं में सूचित किया जाता।

यही नहीं, जरा उन विज्ञापनी तमाशों की तुलना करें, तो दुनिया की सब से धनी कंपनियाँ भी अपने काम या कंपनी के मालिक का फिजूल विज्ञापन नहीं करतीं। टाटा या टोयोटा के प्रबंधकों को सपने में भी ख्याल नहीं आता कि नियमित रूप से अखबारों में करोड़ों डॉलर के ‘बधाई’ विज्ञापन देकर मालिक की छवि फैलाएं! अतः यहाँ सत्ताधारी नेताओं द्वारा राजकोष का धन आत्म-प्रचार और पार्टी-प्रचार में फूँकना भयावह भ्रष्टाचार है। साथ ही, सत्ताहीन दलों के प्रति घोर अन्याय भी, जिन के नेताओं का वही प्रचार असंभव रहता है। 

प्रकारांतर, यह चुनावी भ्रष्टाचार भी है, जब मंत्रिपदधारकों का पार्टी-प्रचार राजकोष से होता रहता है। जबकि सत्ताविहीन पार्टियों के नेताओं को अपना प्रचार अपने कोष से करना है। यह अन्याय आसानी से रुक सकता है। राजकीय विभागों, संस्थानों के विज्ञापनों में सत्ताधारी नेताओं के नाम व फोटो नहीं डालने का नियम बना कर। तमाम जरूरी सूचनाएं, विज्ञप्तियाँ उसी तरह, छोटे रूप में दी जा सकती हैं, जैसे टेंडरों या खाली पदों के विज्ञापन छपते हैं। चूँकि यह नियम भी समान रूप से देश भर की राजकीय संस्थाओं, विभागों पर लागू होंगे, इसलिए कोई मंत्री शिकायत नहीं कर सकेगा कि उसे हानि हो रही है।

उसी क्रम में, हरेक मंत्री को चुनाव में केवल अपने चुनाव क्षेत्र में प्रचार करने की अनुमति हो। वह भी बिना कोई राजकीय कार्यक्रम जोड़े। सो, मंत्रियों का पूरे देश या राज्य में घूम-घूम कर चुनाव प्रचार करना रोका जाए। क्योंकि उस से सत्ताविहीन पार्टियों, उम्मीदवारों के प्रति अन्याय होता है कि उस के कार्यक्रमों, सभाओं में राजकीय तंत्र नहीं लगा होता, जो मंत्रियों के लिए व्यवस्था, सुरक्षा, आदि के नाम पर जुड़ा रहता है। यह भी राजकोष का दलीय दुरुपयोग है, जिसे रोकना संभव है। 

उपर्युक्त केवल उदाहरण हैं। संगठित भ्रष्टाचार के अनेक अन्य रूप भी हैं। राजकीय संस्थाओं, बिल्डिंगों को सत्ताधारी दलों के नेताओं के नाम देना, आदि भी पार्टी-प्रचार का तरीका है। यानी, राजकोष का दुरुपयोग। वरना किसी राजकीय तेल कंपनी के मुख्यालय पर सत्ताधारी दल के एक मामूली दिवंगत पार्टी नेता की मूर्ति लगाना बेतुका है, जिन का न तेल, न मंत्रालय, न ही सरकार, न व्यापार से कोई संबंध था। 

अतः नियमित, भारी, फिजूल विज्ञापनबाजी, और अन्य तरीकों से नेता और पार्टी-प्रचार में राजकोष के अरबों रूपए उड़ाना घोर भ्रष्टाचार है। जो यूरोपीय, अमेरिकी लोकतंत्रों में अकल्पनीय है।  

अंतत, भारत में राजनीतिक दलों को ‘सूचना के अधिकार’ से छूट, तथा अपने आय-व्यय की स्थिति गोपनीय रखने की अनुमति उन्हें भ्रष्टाचार का विशेषाधिकार दे देने के समान है। जरा सोचें, देश में सामान्य नागरिकों, दुकानों, कंपनियों, आदि सब से एक-एक रूपए का हिसाब देना अनिवार्य कर दिया गया है। वहीं राजनीतिक दलों को अरबों रूपए भी, कहीं से भी, चुपचाप, लेने और कैसे भी खर्चने की छूट दिए रखना भयंकर अन्याय है! इस में, सन् 2018 ई. में लिया गया वह संसदीय निर्णय भी जोड़ लें कि राजनीतिक दलों द्वारा ‘‘विदेशी स्त्रोतों से लिए गए धन की जाँच नहीं होगी’’, तब भयंकरता और भी विराट दिखेगी। 

यह सब भ्रष्टाचार  लगभग 95%  तक सटीक रूप से, और निर्विवाद रूप से, बंद किया जा सकता है - गर भ्रष्टाचार खत्म करने की मंशा हो! हमारे महामहिम राष्ट्रपति, या सुप्रीम कोर्ट, या केंद्रीय चुनाव आयोग भी यह कर सकते हैं। राज्यतंत्र के दलीय दोहन और विविध अन्य कदाचारों को रोकने हेतु वे सदाशयी, निष्पक्ष जानकारों की एक समिति बना सकते हैं। वह ऐसे नियम प्रारूप बना कर दे सकती है जिस से सभी चुनाव सादगी से, और सभी दलों, उम्मीदवारों की स्थिति समान बना कर हों। इस से न केवल अधिकांश भ्रष्टाचार जड़ से खत्म हो जाएंगे, बल्कि संसद से लेकर सभी राजकीय निकायों में योग्य और सेवाभावी निष्ठावान व्यक्तियों के पहुँचने का रास्ता खुल. जाएगा। 

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