बोध कथा - आखिर पशु कौन ?

सुरेंद्र बासल

भक्त एकनाथ जी पूजन से निवृत्त होकर पेट पूजन के लिए कुछ रोटियां बनाकर बैठे ही थे कि एक मरियल सा कुत्ता पूंछ हिलाता आ पहुंचा और पूर्व इसके कि वे उसे कुछ डालें, वह एक रोटी मुंह में दबाकर भाग लिया।  एकनाथ ने देखा तो चिल्लाते हुए उसके पीछे दौड़े, “कलुए ए कलुए" तनिक ठहर तो सही, मगर वह कहां ठहरने वाला था। दौड़ता चला गया।
एक अजीब सा दृश्य था। मुंह में रोटी दबाए एक कुत्ता भागा चला जा रहा है और एक वृद्धकाय संत उसे डांटता-डपटता पीछे-पीछे चला जा रहा है। लोगों ने जब यह तमाशा देखा तो 'जाको रही भावना जैसी' के अनुसार प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने से नहीं चूके। फिरते हैं संत बने, मगर कुत्ते को एक कौर तक नहीं डाल सकते। आखिर जा रहे हैं उसके मुंह से कौर छीनने, राम-राम !
एकनाथ जी ने कुत्ते को पकड़ लिया। चट्ट से उसका कान पकड़ा और खींचते हुए वापस ले आए अपनी कुटिया में। उसके मुंह से छीनी रोटी पर घी डाला और उसके आगे डालकर बड़े लाड़ से बोले ' कितनी बार समझाया है कि घी में डालने से पहले न लेकर भागा कर, ले अब खा'। कुत्ता घी से तर रोटी आराम से खाने लगा।इसके बाद एकनाथ जी ने भोजन किया।
गली के कुत्ते जैसे तुच्छ पशु के लिए भी मानव का ऐसा स्नेह, दया और करुणा का भाव और कहां आज के अति सभ्य, सुसंस्कृत, सुशिक्षित कहा जाने वाले हमारे जैसे लोग जीभ के स्वाद के लिए क्या क्या नहीं करते हैं। सिरों-सींगों वालों से अपने ड्राइंग रूम सजाने के लिए आखेट क्रीड़ा और पेट को क़ब्रिस्तान बनाने के लिए लाखों निरीह जीवों और सुन्दर-सुन्दर पंख-पंखेरुओं को मार डालते हैं। माटी के पुतले यानी अपनी देह को सजाने के शृंगार के लिए नित नूतन सौंन्दर्य प्रसाधन सामग्री तैयार करने के लिए प्रकृति के अति-सुन्दर, अतिमोहक, भोले-भाले मासूम प्राणियों को बुरी तरह तड़पा-तड़पा कर बेरहमी से मार डालते हैं। सो वो भी एक वर्ष में करोड़ों की संख्या में ! अब पशु किसे कहा जाए जो मरते हैं? अथवा उन्हें जो इन बेजुबान निरीह जीव-जंतुओं को बे-मौत मार कर डकार डालते हैं ?

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