दायित्व से मुंह न मोड़े साहित्यकार

रामा तक्षक/नीदरलैंड्स

परिस्थिति षम हो या विषम हो, कलम चलती है। कलम मुंह नहीं मोड़ती है। कलम अपना काम करती है। कलम अपना दायित्व निभाती है। कलम की अपनी पांख होती हैं। कलम की अपनी आंख भी होती है। पांख और आंख का मेल ही कलम का जीवन है। वही कलम का मन है। इसी मेल से लेखन को जीवन मिलता है। पाठक के लिए लिखे काले अक्षर फिल्म समान हैं। वह इसी कलम के सहारे लेखक के अनुभवों से जुड़ने के लिए पहुंच बनाता है। लेखन एक पुल का काम करता है।
लेखन चाहे सदियों पुराना हो। लेखन चाहे हजारों हजार कोस दूर बैठ कर किया गया हो। यही लेखन दृश्य और पठन की कड़ी है। यही लेखन काल के विस्तार और दूरस्थ स्थान के बीच बना पुल है। लेखन समय से परे, समझ की पकड़ है।
काल और परिस्थितियां, ये दो घटक जीवन को तराशने, जोड़ने, तोड़ने और मरोड़ने की प्रक्रिया का नाम हैं। यह प्रक्रिया सदा जारी रहती है। काल के घेरे और परिस्थिति की जड़ में बसती हैं चुनौतियां। इन चुनौतियों के भी अपने चेहरे हैं। चुनौतियां केवल एक ही मांग करती हैं। पूर्ण सजगता की मांग। साहित्यिक लेखन सदा से सजग जीवन की चाह को लेकर काल और परिस्थितियों को सृजनात्मकता में ढ़ालता रहा है।
विश्व भर में 21वीं शताब्दी का स्वागत फुलझड़ियों और पटाखों से हुआ था। यह सब इस आशा के साथ हुआ था कि इक्कीसवीं सदी विश्व में शांति की सदी होगी। इस सदी के आरंभ में यह सोच बनी थी कि मानवता ने पिछले दो विश्व युद्धों से बहुत कुछ सीख लिया है। मानव मानव के प्रति समझदार हो गया है। मानव जीवन के प्रति सजग हो गया है। मानव ने मानव के प्रति, सजगता के साथ आदर की राह पकड़ ली है। इक्कीसवीं शती के आगमन पर, एक नई सदी के शुरुआत के समय, कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ था।
एक बरस भी नहीं बीता था कि  9/11 के ट्विन टावर के धराशायी होने के साथ, यह सब, शांति का सपना भी तहस-नहस हो गया। पिछले इक्कीस बाइस वर्षों में एक भी वर्ष शांति का नहीं रहा है।
विश्व में शांति का जिक्र पिछली सदी में भी पहले प्रथम विश्वयुद्घ और द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु बम की तबाही से लेकर आज तक होता रहा है। प्रत्येक देश के नेता स्वतंत्रता दिवस या राष्ट्रीय महत्त्व के दिवस पर गरूर के साथ सेना के दलबल और परमाणु जखीरों के साथ शांति की बात जरूर करता है। अपने  निकटतम व्यवसायी को अपने देश के सैन्यबल को सशक्त करने के लिए आयुद्ध उद्योग में भारी पूंजी लगाने को जीभर कर, सिरजोड़ और सहयोग करता है।
सीमा की सुरक्षा के नाम पर, शांति के नाम पर, हथियार निर्माण के नाम पर, आर्थिक विकास के नाम पर, जनता को रोजगार की घुट्टी दी जाती रही है। जो हथियार बने हैं या जो हथियार बनेंगे। वे कहीं न कहीं काम में लिए जाएंगे। हथियार लड़ने के लिए बने हैं। वे विध्वंस ही करेंगे। 
हथियार निर्माण के बाद बाजार तलाश की दौड़ शुरू हो जाती है। विश्व में हथियार बेचने के लिए मेले लगते हैं। एक ओर जहां हथियार बिक्री के मेले लगते हैं वहीं दूसरी ओर सभी धर्मों के गुरु विश्व शांति सम्मेलन कर रहे होते हैं। इस शांति सम्मेलन का आयोजक हथियार निर्माणकर्ता हो सकता है। शांति सम्मेलन का आयोजक वे व्यवसायी लोग भी करते हैं, जिन्होंने अकूत पूंजी हथियारों के उत्पादन में लगाई होती है। इस शांति सम्मेलन के खर्च का उन्हें, उनकी आमदनी की कर कटौती में, पूरा आर्थिक लाभ मिलता है।
यह बड़ी विडंबना है। इस दोमुंहे संसार में कभी शांति हो सकेगी ? इस बात की कल्पना करना मुझे विचित्र बात लगती है। आज वैश्विक नेतृत्व अपनी ही नहीं संपूर्ण मानव जाति की कब्र खोदने में लगा हुआ है। 
मैं कुछ और कहूं उससे पहले एक सुनी हुई लघुकथा आपसे कहता हूं। एक तानाशाह था। उसका बहुत बड़ा साम्राज्य था। उसका साम्राज्य चारों दिशाओं में फैला हुआ था। एक संत उस तानाशाह का मित्र भी था। यह संत जंगल में एक बड़े पेड़ के नीचे एक कुटिया बनाकर रहता था। तानाशाह और संत दोनों की बहुत गहरी दोस्ती थी। इस दोस्ती की मिसाल का आमजन को पता था। तानाशाह ने जंगल के पास ही एक बड़ा आलीशान महल बनवाया।
एक दिन दोनों मित्रों की भेंट हुई तो तानाशाह ने कहा "मित्र! मैंने एक नया महल बनवाया है।" 
फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए, संत मित्र के सामने एक प्रस्ताव रखते हुए बोला "आप भी एक कमरा लेकर उसमें रहने लगो।"
संत ने विनम्र भाव से कहा "राजन आप मुझे क्षमा करें। मैं अपनी कुटिया में बहुत खुश हूं।"
संत के बोल यहीं पर न रुके। उसने तानाशाह से विनम्र भाव भरे शब्दों में कहा "मुझे इससे अधिक की जरूरत नहीं है। मैं महल में ना रह पाऊंगा। मैं जीते जी मर जाऊंगा। मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा।" 
इतना कहकर उसने अपनी टूटती सांस को सम्हाला। 
राजा ने मित्र की बात सुन अधिक दबाव देना उचित न समझा। उसने कहा "कम से कम मेरे महल को देखने के लिए ही जाओ।" 
संत ने कहा "ठीक है।"
ऐसा कहकर संत ने हामी भर दी।
एक दिन ऐसा भी आया जब संत राजा के साथ नये महल को देखने गया। महल के चारों ओर सैनिकों का जाल बिछा था। इस स्थान पर कोई परिंदा भी अपनी मर्जी से अपने पंख नहीं फड़फड़ा सकता था। महल को सजाने संवारने में कोई कसर न छोड़ी गई थी। शौचालय की टोंटी भी सोने की बनी थी। सब  जगह हीरे मोतियों की चमक थी। सब जनता का था। जनता का सब माल महल की रौनक में लगा था।
नये महल में, संत मित्र के आने से तानाशाह बहुत खुश था। उसने अपने मित्र को महल का कौना कौना दिखाया। उसे खूब घुमा घुमाकर दिखाया। तानाशाह के अपने ही शब्दों में "दुनिया में ऐसा महल अब तक नहीं बना है। किसी के पास नहीं है। सब कुछ संगमरमर का है। मैंने इस महल को बढ़िया और सुंदर बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है।" 
राजा ने बड़े शौर्य और दृढ़ता का भाव चेहरे पर लाकर कहा "यह बहुत सुरक्षित जगह है।" सुरक्षा का ख्याल रखते हुए मैंने इसमें कोई दरवाजे खिड़कियां नहीं रखी हैं। महल में प्रवेश के लिए केवल एक ही मुख्य दरवाजा है।
यह सुनकर संत अचानक सकपकाया सा चलते चलते एकदम ठहर गया। उसका शरीर एकदम स्थिर हो गया। चलते हुए उसके दोनों कदमों के बीच की दूरी, दूरी ही बनी रही। उससे कहते रहा न गया। उसने कहा "राजा मुझे तो यहां सांस लेने में कठिनाई आ रही है।"
विस्मित स्वर में राजा ने कहा "ऐसा क्यों ? यह तो बहुत सुरक्षित जगह है।"
बहुत सम्भल और सहज हो संत होले होले बोला, "हां, सुरक्षित तो है लेकिन यदि तुम इस मुख्य दरवाजे को भी बंद कर दोगे तो यह तुम्हारा मकबरा भी बन जाएगा।"
आज हम शस्त्रों की होड़ में अपने ही बनाये बमों पर खड़े हैं।अपने ही मकबरे की तैयारी की अनदेखी कर रहे हैं। अमेरिका ने रासायनिक हथियारों के नाम पर, ईराक पर युद्ध थोप दिया था। वहां की सारी सामाजिक व्यवस्था को मटियामेट कर, आइसिस के लिए सब हथियारों का जखीरा छोड़ भागा। 
बाद में तालिबान पर युद्ध थोप कर, अपने दांत खट्टे करवा कर, अफगानिस्तान से दुम दबाकर भाग निकला। सीरिया और आइसिस के किए की बाल सिसकी भरी आहें, आज भी बंदी महिलाओं के शिविर में सुनाई पड़ती हैं। 
युद्ध से पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय नुकसान भी बहुत होता है। जिस जगह बम गिरकर फटता है, वहां की मिट्टी की जैविक मौत में, करोड़ों अरबों जीवाश्म बलि हो जाते हैं। ये वे जीवाश्म हैं जो धरती पर विभिन्न रूपों में जीवन का पोषण करते हैं। जो धरती पर मानव के अस्तित्व का कारक हैं। जिनकी उपस्थिति मनुष्य से लाखों अरबों बरस पहले की है। 
द्वितीय विश्व युद्ध में नागासाकी और हिरोशिमा पर बरसाए गए बमों वाली जगह आज भी घास नहीं उगती है। यह सब जानते हुए भी पारिस्थितिकीय नुकसान की भरपाई की बात किसी भी वैश्विक नेतृत्व के मुंह से नहीं उगलते बनती। उगलते इसलिए भी नहीं बनती क्योंकि पारिस्थितिकी की किसे परवाह है। सब आर्थिक विकास की आड़ में चुप हैं।
पुतिन ने यूक्रेन पर 'विशेष अभियान' के बहाने युद्ध थोंपकर, शहरों को मटियामेट कर दिया। इस घिनौनी हरकत से उपजी कड़वाहट भरी खटास अब उससे न निगलते बन रही है न उगलते। 
इस सबसे यह तो स्पष्ट है कि आग लगाना आसान है और उसे बुझाना बहुत टेढ़ी और करेले की कढ़ी खीर है। 
साहित्य और कला सब शांति काल में ही संभव है। इस कारण जो साहित्यकार शोषण, संत्रास, घरेलू पीड़ा और युद्ध ग्रस्त क्षेत्र की चीख पुकार को सुन रहे हैं। उनके कन्धों पर, युद्ध स्थिति और काल में हस्तक्षेप कर, लेखन का बहुत बड़ा दायित्व है। 

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