हिन्दू धर्म-समाज हार रहा है!

कूनराड एल्स्ट  


प्रोपेगंडा करने वाला तंत्र वीकीपीडिया (जिसे उस के संस्थापक ने ही यही कहकर निंदित किया), स्पष्ट शब्दों में कहता है कि मैं आर.एस.एस. का कर्मचारी हूँ। यद्यपि यह साफ झूठ है। लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने,  और बिके हुए भारत-विशेषज्ञों ने उस प्रोपेगंडा को हू ब हू स्वीकार कर लिया है। 

जब मैं हिन्दुओं की स्थिति का बचाव करता हूँ, तो सदैव मुझे पीछे से  अपनी पीठ पर हिन्दुओं का भी  वार झेलना पड़ता है। अधिकांशतः विविध  हिन्दू संप्रदायों द्वारा। जैसे, नव-बौद्ध, आर्य समाज, अपने को परंपरावादी कहने वाले (‘ट्रैड’), मैक-सिख,  संघ-परिवार समर्थक,  आदि। पिटे लोगों की तरह वे वृहत्तर लक्ष्य को नहीं देख पाते।

वस्तुतः हिन्दूवादी संगठनों का वही पतन हुआ है  जो गाँधीजी की अहिंसा का हुआ था। पहले,  दक्षिण अफ्रीका में, यह दबंगों के विरुद्ध दुर्बल का हथियार था  जिसे कुछ सफलता भी मिली। किन्तु १९४७ ई. तक आकर हिन्दू शरणार्थियों को गाँधी की यह सलाह कि पाकिस्तान लौटकर चुपचाप  जिबह हो जाओ,  दबंग के सामने आत्मसमर्पण और उस से सहयोग तक हो गया! वही पतन हिन्दुत्ववादी संगठनों का हुआ है। पहले  इन्होंने हिन्दू समाज की सेवा की थी, लेकिन अब उस का इस्तेमाल अपने अ-वैचारिक स्वार्थों के लिए कर रहे हैं। दोनों ही प्रसंगों में,  वैचारिक रीढ़ के अभाव ने सशक्त मतवादी हवाओं, जैसे सेक्यूलरिज्म के सामने हिन्दुओं के पैर उखड़ने की स्थिति बना दी।

सचमुच, यह मेरी सब से बड़ी निराशा साबित हुई है। हिन्दू रक्षा के बौद्धिक योद्धाओं के लिए सब से बड़ी बाधा यही है कि उन्हें (मूलतः आर.एस.एस. को) 'फासिस्ट'  कह कर बदनाम किया जाता है। मैंने शोध करके इस आरोप को खंडित किया। किन्तु हिन्दू नेताओं ने मेरी और मेरे काम की उपेक्षा की। वे इस बाधा के सामने सदा फँसे रहना चाहते हैं। 'हिन्दू फासिज्म'  पर मेरे काम की हिन्दुओं ने उपेक्षा की, इस से मुझे कुछ समझ आया कि क्यों वे दर-बदर बने रहते हैं, और कहीं नहीं पहुँचते। तुलना में सोचें, तो रणनीति माहिर चर्च-संगठन अब तक ऐसे काम का जमकर उपयोग कर चुके होते, और मुझे भी खाली तालियों के सिवा भी कुछ देते! किन्तु हिन्दूवादी संगठन  तो इस 'फासिज्म'  के कोड़े से मार खाते रहना पसंद करते हैं।

संघ-भाजपा के समर्थक कहते हैं कि उन्हें किसी से सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं। सचमुच,  हिन्दुओं को अपनी जेब में, इसलिए उपेक्षणीय, फॉर ग्रांटेड मानते हुए भाजपा उन से कोई प्रमाणपत्र नहीं चाहती। लेकिन उसे ‘किसी से कुछ पाने की जरुरत नहीं’,  यह कहना  खोखला दंभ है। यदि उन्हें सचमुच  किसी से कुछ नहीं चाहिए तो, बताइए जरा,  वे अल्पसंख्यकों व सेक्यूलरों से गिड़गिड़ाते हुए कुछ न कुछ क्यों  माँगते रहते हैं? 

भारत में मुसलमानों को व्यवहारतः आरक्षण और अन्य कई  सुविधाएं मिली हुई हैं, जो हिन्दुओं को नहीं हैं। इस पर हिन्दुओं को कोई क्रोध नहीं आता, न वे इस का विरोध करते हैं। उसी तरह, जब मोदी जी चिश्ती दरगाह पर चादर चढ़ाते हैं, तो हिन्दू इस पर ध्यान तक नहीं देते। अधिकांश हिन्दू दिखावे, तमाशे, आडंबर पसंद करते हैं। इस हद तक कि यह भी नहीं देखते कि वह किस लिए  हो  रहा है? कई हिन्दू तो खुद अजमेर में चिश्ती की कब्र पर चले जाते हैं। तो स्वभाविक है कि भाजपा नेता हिन्दू नाराजगी का खतरा उठाए बिना मुस्लिम वोटरों की खुशामद में लगे रहते हैं।

उन की  ‘धीरे-धीरे काम होगा’ वाली दलील बहानेबाजी है। क्या नोटबंदी धीरे-धीरे हुई थी? या अनुच्छेद 370 को हटाना जो एक स्वागतयोग्य काम  था?  (या, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध झट से जातिवादी कानून बना देना? – अनु.)।  पिछले आठ वर्ष बहुत लंबी अवधि थे जिस में  सचमुच हालात बदलने वाला असली काम हो सकता था - यानी संविधान के अनुच्छेद 25-30 के मूल अर्थ का विकृतिकरण सुधार दिया जाना। पर कुछ नहीं हुआ। लेकिन  भक्त लोग मिथ्याचारी बहाने गढ़ते रहते हैं।

भारत में  हिन्दुओं को मुसलमानों व क्रिश्चियनों के बराबर अधिकार देने का निर्णय संसद में करने के लिए दो-तिहाई बहुमत न होने, आदि दलीलें भाजपा-भक्तों की बहानेबाजी है। वैसे बहुमत के बिना भी आप प्रस्ताव पेश तो कर सकते हैं।  वैसी स्थिति में  आप को दूसरे कुछ दलों का समर्थन भी मिल सकता है। विशेषतः जब हिन्दू अधिकार के बदले, आप इसे देश के ‘सभी नागरिकों की समानता’ के नाम पर प्रस्तुत करें, तो इसे समर्थन देने वाले जरूर मिल सकेंगे। वह प्रस्ताव पास न भी हुआ, तब भी यह दिखेगा कि आप लड़े चाहे विफल हुए। उस  के बाद यह मजे से अगले चुनाव में एक मुद्दा बन कर आपको लाभ भी दे सकेगा। 

एक ही घिसी-पिटी बातें कहना, बहाने गढ़ना भारत में  एक वर्ग की आदत बन गई है। इस में वे आर.एस.एस. जैसा ही व्यवहार करते हैं – कि दूसरों की प्रतिक्रिया, सुझाव, आलोचनाओं, आदि से कभी कुछ नहीं सीखना। उस पर कान ही न देना। केवल अपनी सीमित, बनी-बनाई नारेबाजी चलाते रहना।  

मैंने धीरे-धीरे सीखा कि अधिकांश हिन्दू जीतने की इच्छा ही नहीं रखते। बल्कि, जैसे हजार साल पहले अल बरूनी ने पाया था, वे अपने छोटे से बुलबुले में सुख से रहना अधिक पसंद करते हैं। मैंने तो हिन्दुओं के अपने घोषित शत्रुओं के बारे में भारी अज्ञान को देखते हुए, जल्दी-जल्दी कुछ तीखी वास्तविकताएं सामने रखने का काम किया। पर वे शायद ही ध्यान देते हैं। विशेषतः हिन्दू नेता लोग। लेकिन जब तक हिन्दू अपने मर्मांतक शत्रुओं के बारे में तरह-तरह की आरामदेह समझ बनाए रखेंगे, वे हारते रहेंगे। उन की मर्जी!
चीनी लोग जीत रहे हैं। क्योंकि वे हिन्दुओं की तरह दिखावटी तमाशों, झुनझुनों पर समय नष्ट नहीं करते। वे ‘इंडिया दैट इज भारत’ जैसा  कुछ नहीं कहते, बल्कि साफ कहते हैं कि हम  अपने देश के अंदर ‘झोंग्गुओ’ ही बोलेंगे, उसे ‘चाइना’ नहीं कहेंगे। जब कि हिन्दू लोग तो  अपने देश का नाम भी अपना रखने, कहने में असमर्थ हैं।    
औसत या मंदबुद्धि लोगों को यह बड़ी बात लग सकती है कि किसी नेता या संगठन  के कितने समर्थक या अनुयायी हैं। इसलिए वे आलोचना के किसी महत्वपूर्ण स्वर को भी तुच्छ समझते हैं। लेकिन याद करें, कि गैलीलियो के विरोधी कितनी भारी संख्या में थे! फिर भी वे सभी गलत थे। अतः कितनी  बड़ी संख्या में  किसी दल या संगठन के अनुयायी हैं, यह किसी ठोस तथ्य या सत्य के समक्ष महत्वहीन है।

आर.एस.एस. के लोग सब कुछ पर अपना नियंत्रण रखने पर बड़ा जोर देते हैं। जबकि  वे असली शक्ति-पदों पर योग्यताविहीन, निकम्मों,  या  दुश्मनों तक को नामित कर देते हैं।  जैसे, 2002 ई. में ‘ऑक्सफोर्ड चेयर ऑन इंडियन स्टडीज’ पर संजय सुब्रह्मण्यम को नियुक्त  किया था। वे सोचते हैं कि चूँकि उन्होंने नियुक्त किया, इसलिए वह उन का आभारी  चमचा हो गया जिसे वे नियंत्रित कर लेंगे।

संघ-भाजपा के नेता  या  कार्यकर्ता व्यर्थ का घमंड पालते हैं। उन्होंने कोई इकोसिस्टम नहीं बनाया है। जैसा ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म में प्रोफेसर मेनन बोलती है, ‘‘सरकार उन की होगी, मगर व्यवस्था हमारी है।’’ सचमुच,  संघ-भाजपाई लोग अभी भी पूरी तरह  नेहरूवादी कायदों से चल रहे हैं। चाहे, हिन्दुओं को बहलाने-फुसलाने के लिए  समय-समय पर सस्ते झुनझुने, छिट-पुट तमाशे देते रहें। लेकिन धीरे-धीरे हिन्दुओं का एक वर्ग यह समझने लगा है। 

दरअसल, ‘आफिस’ पर कब्जा और ‘पावर’ रखने में अंतर है। जब इंदिरा गाँधी को कम्युनिस्टों का समर्थन चाहिए था, तो उन्होंने यही सौदा किया:  आफिस और उस से जुड़ी सारी सुख-सुविधाएं कांग्रेस-आई को, तथा संस्कृति व शिक्षा को नियंत्रित करने का पावर कम्युनिस्टों को। इसलिए, भाजपाइयों द्वारा तमाम आफिसों में बैठे रहने का स्वतः अर्थ यह नहीं कि वे पावर में भी हैं। उन्होंने ‘आफिस’ और तत्संबंधी सुख-सुविधाओं को ही सब कुछ मान रखा है; इसीलिए पावर आज भी वामपंथी, सेक्यूलरवादी इस्तेमाल कर रहे हैं।  

यदि आप में कोई आदर्श है, यदि आप कोई गंभीर उद्देश्य सामने रखते हैं, उस के लिए सत्ता, संसाधन हाथ में लेते हैं – तो निश्चित रूप से आप अपनी गतिविधियों पर लोगों की सत्यनिष्ठ प्रतिक्रिया जानना चाहेंगे। ताकि पता चले कि आप के कामों  का क्या परिणाम हो रहा है, वह अपेक्षित दिशा में है या नहीं, ताकि आप उसे और सुधार बना सकें।  किन्तु यदि आप केवल ‘आफिस’ और उस से जुड़ी सुख-सुविधाएं मात्र चाहते हैं, तब तो आप को केवल भक्त चाहिए! जो आप की जयकार, ठकुरसुहाती करें। तो बताइए, भाजपा क्या चाहती है? 

साफ दिख रहा है कि भाजपा की समालोचना करने वाले जाने-माने हिन्दू या हिन्दू-हितैषियों पर कीचड़ उछाला जा रहा है। उन का मजाक उड़ाया जाता है। ठोस बातों पर उत्तर देने के लिए बदले उन्हें चिढ़ाया, या झूठी तोहमत लगाई जाती है। यह किसी भी सोशल मीडिया मंच पर देख सकते हैं। जैसा मधु किश्वर ने लिखा, “जो भी मोदी सरकार या भाजपा को अपना सच्चा फीडबैक देते हैं, उन सब को दुश्मन बताया जाता है। क्या भाजपा को केवल चमचे चाहिए?”

उत्तर में संघ-भाजपाई व्यंग्य से कहते हैं कि क्या वे इतनी ऊँचाई पर ऐसे ही पहुँच गए?  उन के अनुसार, हिन्दू बौद्धिक तो बस अपनी बात को ही ‘फीडबैक’ समझते हैं और ‘सामान्य आदमी के फीडबैक को कुछ नहीं समझते।’ इस तरह, संघ के लोग सुचिंतित आलोचनाओं को अनसुना कर अपनी उपलब्धियों पर फूलते रहते हैं। 

किन्तु वे उपलब्धियाँ क्या हैं? वे खुद माने बैठे हैं कि उन्होंने बहुत कुछ उपलब्ध कर लिया। सचाई यह है कि उन्होंने केवल चुनाव जीते, जो विरोधियों ने भी काफी जीते हैं। किन्तु संघ-भाजपा के लोग जैसे ही सत्ता में आते हैं, वे किसी दबाववश सारा हिन्दू एजेंडा छोड़ देने को मजबूर हो जाते हैं (उन के अंधभक्त या विरोधी चाहे दावा जो करें)। उलटे, वे दुश्मनों का एजेंडा लागू करने में लग पड़ते हैं। 

मैंने आर.एस.एस. को कभी किसी विषय में हिन्दू जीत का प्रयास करते नहीं सुना। वे विभिन्न चुनावों आदि में आर.एस.एस.-भाजपा की जीत जरूर हासिल करते हैं। किन्तु उन की तमाम तुष्टीकरण और सेक्यूलरवादी नीतियाँ निस्संदेह हिन्दू हितों, हिन्दू कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की कीमत पर ही चलाई जाती हैं। यह तो ‘जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काटते जाने’ का ही उदाहरण है।  

संघ कार्यकर्ता ‘जमीनी काम’ करने का दंभ पालते हैं। पर कौन से काम?  सेक्यूलर, आपदा-राहत, और विकास के काम - न कि वे काम जिस के लिए डॉ. हेडगेवार ने आर.एस.एस. की स्थापना की थी।  चर्च-मिशनरी लोग ऐसे राहत कार्यों को सैदव अपनी वैचारिक परियोजना से तत्काल जोड़ते हुए चलाते हैं। संघ ऐसा नहीं करता। यह केवल अपने को भला समाजसेवी दिखा कर, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू होता रहता है। जो और जैसा वैचारिक कार्य चलाता भी है. वह असल समस्याओं पर नितांत निष्प्रभावी रहता है। इस तरह, ठोस परिणामों का आकलन करके देखें तो हिन्दू धर्म और समाज हार रहा है, उस की जमीन दिनो-दिन निरंतर छिनती जा रही है! इसे कोई भी परख सकता है।   

किन्तु इस आलोचना को कुछ लोग ‘असंख्य निःस्वार्थ कार्यकर्ताओं के त्याग का मजाक उड़ाना’ कहते हैं। किन्तु, दरअसल, आर.एस.एस. के नेतागण ही उन कार्यकर्ताओं का मजाक उड़ा रहे हैं। वे सभी त्याग, बलिदान हिन्दू लक्ष्य के लिए किए गए थे। किन्तु हिन्दुओं की सारी रचनात्मक ऊर्जा को एकत्र कर उसे संघ-भाजपा के अपने स्वार्थ में लगा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, उन के द्वारा चलाई जा रही इस्लामी तुष्टीकरण नीतियों में जो सरकारी नीतियों और संघ के क्रियाकलाप, दोनों स्तरों पर हो रहे हैं।    

वे अपनी हर आलोचना को पूर्वग्रह, केवल कुर्सी तोड़ने वाले बौद्धिकों का अहंकार बताते हैं। किन्तु हानिकर रणनीतियों की गलतियाँ दिखाने में कौन सा दुराग्रह, या अहंकार है?  हमें अनेक संघ कार्यकर्ताओं के अच्छे कामों के बारे में बखूबी मालूम है। उस से हमें कोई विरोध नहीं। लेकिन हम यह देखने से कैसे रह सकते हैं कि आर.एस.एस. के बड़े लोग लाखों लोगों की उस सारी ऊर्जा का उद्देश्यांतर करके कहीं और लगा देते हैं? (फिर उस की उलटी सीधी सफाई देते हैं, जिस की भी परख न स्वयं करते, न अपने कार्यकर्ताओं को करने देते हैं। यह अपने और अपने अनुयायियों से छल है! - अनु.) 

हिन्दू राजनीतिक आंदोलन का अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि आर.एस.एस. के पदाधिकारी सैदव चलते-फिरते,  ‘प्रवास’ में रहते हैं। मानो जैसे, कोल्हू में बैल चलता रहता है। एक अंदरूनी व्यक्ति ने मुझे बताया कि उन के बीच यह स्टेटस-सिंबल जैसा है, कि कौन कितनी यात्राओं में रहता है!  लेकिन सदैव चलते रहना तो काम करना नहीं है। काम के आकलन-मूल्याकंन आधार तो भिन्न होंगे। 

सचमुच, जनसंघ-भाजपा जब से सक्रिय हैं तब से यह शोध करना विस्मयकारी होगा कि कितने हिन्दू-विरोधी फैसले कांग्रेस और अन्य द्वारा किए गए, जिन में भाजपा ने सक्रिय सहयोग किया, समर्थन दिया, चुप रही, या विरोध किया। (साथ ही, कितने हिन्दू-विरोधी फैसले स्वयं भाजपा सत्ताओं ने किए। - अनु.) 
 
केवल जड़-सूत्र रटने वालों में यह विशेषता प्रायः देखी जा सकती है। वे किसी मतवाद को खूब कोसते हुए भी उस से गहराई से प्रभावित हो जाते हैं। इस का वर्तमान उदाहरण संघ-भाजपा भी है। वे नेहरूवाद को खरी-खोटी सुनाते हैं, जबकि वास्तव में नेहरूवाद की ओर से ही प्रथम आक्रामक दस्तों में बदल गए हैं। वे हर नेहरूवादी विचार को ही अपनी नीतियों में लागू कर रहे हैं।  

उसी तरह, जातिवादी नीतियाँ। वे चाहे इंकार करें, पर भाजपा नेता अपने को सोशल जस्टिस, सकारात्मक पक्षपात, आदि के पैरोकार बनाने, दिखाने को उतावले हैं। इस में कुछ भी धर्म-सम्मत, विवेकपूर्ण या हितकारी नहीं है। यह सब  औसतबुद्धि वालों द्वारा चालू वैचारिक फैशनों की नकल मात्र है। 

अतः यदि आर.एस.एस. यह समझता है कि वही अपने देश-समाज को संचालित कर रहा है तो उसे लज्जित होना चाहिए। इस के अस्तित्व की पूरी अवधि में हिन्दू समाज पीछे ही घिसटता गया है। यहाँ तक कि अंग्रेजों से स्वतंत्रता पाना (जो गैर-संघ हिन्दुओं का कार्य था) भी देश-विभाजन द्वारा गंभीर रूप से कलंकित हुआ। मैं संघ के लोगों को चुनौती देता हूँ कि वे अपने अस्तित्व के लगभग सौ सालों में हिन्दुओं की किसी एक भी अकलंकित जीत का उदाहरण दें।    

हालाँकि हर कहीं, मौके का फायदा उठाने वाले यही घमंड दर्शाते हैं: कि “कम से कम हम कुछ *करते* तो हैं।”  हाँ, जरूर। बैल भी गाड़ी में जुता हुआ यही *करता* है। मगर वह करता क्या है? वही, जो गाड़ी हाँकने वाला उसे हुक्म दे। आर.एस.एस. के घमंड के विपरीत, इस के लोग हिन्दू समाज के हितकारी न होकर, किसी अदृश्य गाड़ीवान द्वारा हाँके जा रहे पैदल सिपाही है। जिन्हें नहीं मालूम कि वे कहाँ जा रहे हैं।

कोई सार्थक वैकल्पिक कार्य-प्रणाली या मॉडल बनाना अकल्पनीय नहीं है। इस में केवल गलतियों से सीखने की जरूरत और थोड़ी कल्पनाशीलता चाहिए। आर.एस.एस. जैसे चल रहा है, चलता रहे। किन्तु इसे अपनी गलतियों पर सचमुच खुले मन से विचार करने की आवश्यकता है, कि कहाँ से वे राह भूल-भटक गए। इस पर जबरन पर्दा डाले रखकर, और ‘सब ठीक है’ की भंगिमा अपना कर वे किसी का भला नहीं करेंगे। 

अनेक हिन्दू अपने समाज के अस्तित्व के संघर्ष को मानो दर्शकदीर्घा से एक खेल की तरह देख रहे हैं। परन्तु, अपने खात्मे का इंतजार कर रहा अंतिम हिन्दू ऐसे असंख्य लोगों की आत्मकेंद्रितता को शाप देगा जिन ने यह हिसाब लगाकर हिन्दू-शत्रुओं को सहूलियतें देना तय किया हुआ है कि इस के दुष्परिणामों से उन्हें कोई हानि नहीं होने वाली! (जहाँ देश के विविध हिस्सों में हिन्दुओं को सामूहिक रूप में खत्म और विस्थापित किया गया, वहीं तमाम नेता बड़े-छोटे नगरों, बस्तियों में भारी हिन्दू जनसंख्या के बीच अपने-अपने घरों, ऑफिसों में सदैव सुरक्षित रहे। उन्हें कोई हानि नहीं हुई। इसे वे स्थाई स्थिति समझते हैं, कि आम हिन्दू हितों से उन के निजी हित जुड़े हुए नहीं हैं। - अनु.)। 

अपनी सांस्कृतिक पहचान की उपेक्षा करके आप एक बहुमूल्य विरासत को फेंक रहे हैं। अपने ‘विकांस’ के नारे के साथ आप अन्य लोगों के मामूली नकलची भर बनते हैं। आप अपनी संख्या में भले सुख महसूस करें, किन्तु एक विशिष्ट सभ्यता के रूप में आप मिट जाने की ओर हैं।                                
(अनुवाद : शंकर शरण)

Post a Comment

0 Comments