हिमाचल को चाहिए अपनी विकास नीति

पहाड़ों के मिजाज समझ बनें विकास योजनाएं

दरकते पहाड़ों ने डराया, कुदरत से अंधाधुंध छेड़छाड़ तबाही को न्योता, जून के अंतिम सप्ताह आई आफत से सबक लेने की जरूरत

बीरबल शर्मा
हिमाचल प्रदेश हो या अन्य पहाड़ी राज्य सभी जगह विकास की योजनाएं स्थानीय मिजाज के अनुरूप ही बनानी होंगी, अन्यथा जिस बेरहमी के साथ हिमाचल समेत सब जगह कुदरत से अंधाधुंध छेड़छाड़ हो रही है, वह सीधे-सीधे तबाही को खुला आमंत्रण है। अभी भी समय है कि विकास के जो मसीहा आलीशान कार्यालयों में बैठकर भाग्य रेखाएं समझी जाने वाली सड़कों या अन्य विकास योजनाओं की लाइनें खींचते हैं, वे प्रदेश के मिजाज को समझें, यहां की आबोहवा, प्रकृति के स्वभाव, भौगोलिक परिस्थितियों और संवेदनशीलता को समझें। अन्यथा आने वाले दिनों में तबाही की जो आहट सुनाई दे रही है वह बेहद ख़तरनाक और डरावनी होगी। 
यह ठीक है कि गलोबल वार्मिंग का असर सब जगह दिख रहा है मगर पहाड़ों पर तो यह सीधे कहर ही बरपा रहा है। इसकी एक बानगी साक्षात देखी जा चुकी है और यह क्रम निरंतर जारी है। फोरलेन हो या अन्य सड़कें या फिर पन बिजली परियोजनाएं, अंधाधुंध अवैज्ञानिक खनन, अवैध डपिंग, बेतहाशा ब्लास्टिंग, बेतरतीब निर्माण, ठेकेदारों की मनमानी, निर्माण में गुणवत्ता का अभाव और पूरे तंत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला, इन सबने हिमाचल के सौंदर्य, यहां के जनजीवन, यहां की आबोहवा और शालीनता को निशाने पर ले लिया है। 
निरंतर छोटे और खोखले होते जा रहे पहाड़, चढ़ाई और उतराई को चुनौती देती दर्जनों सुरंगों का निर्माण और निर्माण की निम्न गुणवत्ता आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती हो सकते हैं। इसे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर समझना होगा। 
हिमाचल सिर्फ हिमाचल ही रहे, विकास के मामले में इसे दूसरे राज्यों की तरह न देखा जाए, यही सही रहेगा। सरकार हर साल अपनी नीतियां लाती हैं, शराब नीति, टैक्स नीति, खेल नीति, शिक्षा नीति और भी न जाने क्या क्या नीतियां लाती है तो क्या हिमाचल में विकास की नीति लाने की जरूरत नहीं है और इसे लाना ही होगा अन्यथा जब सबकुछ हाथ से निकल जाएगा तब बुरी तरह से पछताने के अलावा कुछ ‌नहीं होगा ? विकास का हिमालयन मॉडल तैयार हो और सभी परियोजनाओं पर उसी के अनुसार काम किया जाए तभी यह खूबसूरत प्रदेश अपनी खूबसूरती को बरकरार रख पाएगा।  
हिमाचल के पहाड़ दरक रहे हैं, मौसम ने अपना मिजाज क्या बदला, पहाड़ों ने अपने साथ हुई अवैज्ञानिक छेड़छाड़ का बदला ले लिया। अगस्त में नजर आने वाले दृश्य जून के अंतिम सप्ताह में ही दिखने लगे। प्रदेश में पर्यटन सीजन चरम पर चल रहा है मगर दरकते पहाड़ों ने लाखों लोगों को आफत में डाल दिया है। हजारों हजार वाहन और उनमें सवार पहाड़ों की ठंडी फिजाओं का आनंद लेने, प्रचंड गरमी से राहत पाने के लिए आने वाले सैलानियों को सड़कों पर रात बितानी पड़ी, भूखे-प्यासे रहना पड़ा, बच्चों, बुजुर्गों और महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय दिखी। मनाली से लेकर मंडी तक, मंडी से कुल्लू वाया कटौला, मंडी से पठानकोट, शिमला जिले के पहाड़, कांगड़ा की वादियां, चंबा की सर्पीली सड़कें सब एक ही झटके में जवाब दे गईं। सरकार और प्रशासन सब लाचार दिखे और पहाड़ों के रौद्र रूप के आगे बौने साबित हुए। 
ऐसा लगने लगा कि कुदरत ने साफ संदेश दे दिया है कि जरूरत से ज्यादा छेड़खानी करोगे तो परिणाम इससे भी अधिक भयावह होंगे। यह तो मानसून के आने से पहले या फिर यूं कहिए कि आगमन का एक ट्रेलर है। हिमाचल ने 24, 25, 26 जून को जो देखा वह एक सबक है। अन्य प्रांतों से आए लाखोें लोगों ने आफत झेली। यह एक संदेश है, जिसे समझने की जरूरत है।
अवैज्ञानिक, अंधाधुंध ब्लास्टिंग और खनन, सुरंगों में बदलती सड़कें, कुदरत के स्वभाव के विपरीत विकास का ही यह परिणाम है। आलीशान कार्यालयों में बैठ कर खींची रेखाओं से बन रही टू लेन, फोरलेन सड़कों की अलाइनमेंट इस पहाड़ी प्रदेश के लिए कतई ठीक नहीं है। मंडी और कुल्लू के बीच पंडोह तक हो रही पहाड़ों की कटिंग आने वाले कितने सालों तक गुल खिलाती रहेगी, यह साफ नजर आ रहा है। कई सवाल भी इससे सरकार और प्रशासन पर खड़े हैं। विशेषज्ञों की मानें तो कीरतपुर से मनाली और अब पठानकोट से मंडी के मार्गों पर बनाई गई या बनाई जा रही दर्जनों सुरंगें भी यहां की प्रकृति के स्वभाव के विपरीत हैं। 
हिमाचल ने जून महीने में ही 24,25,26 तारीखों को लोगों ने जो देखा, सहा, भुगता और जो नकारात्मक संदेश सड़कों या वाहनों में बैठ कर रातें काटने वाले सैलानी साथ ले गए, उससे पार पाने के लिए विकास के कर्णधारों को सोचना होगा। प्रदेश और केंद्र की सरकार को तालमेल बिठाकर विकास की परिभाषा कम से कम पहाड़ी राज्य में तो बदलनी ही होगी। योजनाएं बनाने वाले सरकारी तंत्र को रटा रटाया पैमाना छोड़ कर प्रकृति के स्वभाव और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप मौके पर जाकर जमुनी हकीकत समझकर  योजनाएं बनानी होंगी अन्यथा आने वाली पीढ़ी इन्हें कभी माफ नहीं करेगी।  

*अवैज्ञानिक तरीके से हो रही ब्लास्टिंग पहाड़ों के लिए खतरनाक *
प्रदेश के सबसे पुराने सरकारी कालेज वल्लभ महाविद्यालय में कार्यरत प्रो संजय सहगल का मानना है कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ एक सीमा तक ही होनी चाहिए। अवैज्ञानिक तरीके से हो रही ब्लास्टिंग प्रदेश के पहाड़ों के लिए खतरनाक है। पहाड़ जिस तरह दरके हैं और देश दुनिया से आए सैलानी जिस तरह  इन पहाड़ों के बीच चौबीस घंटे से भी ज्यादा देर तक कैद रहे हैं, वह सब अनियोजित विकास का परिणाम है। आने वाले दिनों में ये सुरंगें भी दरक सकती हैं और इसका जो परिणाम होगा उसकी कल्पना से ही रूह कांप जाती है। उनका कहना है कि मौसम का मिजाज दो महीने बाद वाला नजर आने लगा है। कुछ साल पहले बिलासपुर जिले के कुछ घरों में दीवारों से पानी टपकने लगा था और पिछले दिनों जो मौसम में अत्याधिक नमी रही, उससे मंडी के घरों में भी पानी निकलने जैसे वाक्या सामने आए हैं। यह सब मौसम का बदलाव है और यह बेतरतीब खनन, पहाड़ों के अंधाधुंध कटान, मलबे की डंपिंग और वाहनों का अत्याधिक दबाव ही कारण है।  

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