कहानी विसर्जन हरिंदर राणावत

कहानी
विसर्जन 
हरिंदर राणावत
 
जिस तरह से बेटी ने मेज की दोनों दराजें खोल कर उनमें पड़े सामान की छंटाई शुरू की थी, उससे साफ था कि आज उसपर इस काम को निपटाने की धुन सवार है, जिसे वह कितनी ही बार टाल चुकी थी। 
हालांकि हम मान चुके थे कि बेटी की नजर में इस काम की कोई अहमियत नहीं है। पत्नी भी मन बना चुकी थी कि अंततः उसे ही यह काम पूरा करना होगा। लेकिन आज जिस तरह, ठान लेने के अंदाज में, बेटी दोनों दराजों की चीजों को छांट रही थी, उससे यकीन होने लगा था कि कुछ ही देर में दराजें साफ-सुथरी होकर चमकने लगेंगी। 
दराजें साफ करके उसने सारा त्याज्य सामान एक बैग में भर दिया-पुराने खिलौने, गुड़ियों के कपड़े, छोटी हो चुकीं पेंसिलें, चॉक के छोटे-बड़े टुकड़े, स्कैच पैन, लाल-पीली जलती-बुझती रोशनी वाले लट्टू। इन सबमें बेटी की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। मिशन पूरा करने का तसल्ली भरा भाव उसके चेहरे पर था। उसने बैग उठाकर अपनी स्टडी टेबल पर रख दिया।
कुछ दिन बाद जब हमें नाटक देखने जा रहे थे, उस दिन मैंने वह बैग कार में रख लिया, यह सोच कर कि रास्ते में उसे झुग्गी-बस्ती वाले बच्चों को दे देंगे। लेकिन समय से पहुंचने की हड़बड़ी में बैग किसी को याद नहीं रहा और कुछ दिन बाद गरमियों की छुट्टियां हो गईं।
छुट्टियों में पत्नी बेटी को लेकर मायके जा रही थीं। उन्हें आनंद विहार स्टेशन छोड़ने गया तो तैयारी करते समय बेटी ने वह बैग भी उठा लिया। पत्नी ने चौंक कर देखा और पूछा, इसमें क्या है। मैं नजर भर देखकर ही समझ गया कि यह वही बैग है। पत्नी मेरी ओर देखकर इस भाव से हंसी कि ‘देख लो अपनी बेटी को, यह भी तुम्हारी तरह ही बुद्धू है, अभी तो पुराने खिलौनों वाला यह बैग अपनी ननिहाल ले जाती।’
पत्नी और बेटी को आनंद विहार से सरायकाले खां स्टेशन पहुंचना था। फिर ट्रेन से आगरा। आनंद विहार पहुंचने पर दोनों कार से उतरने की तैयारी करने लगीं।
वहां एक प्रीपेड बूथ था जहां लोग अपने-अपने गंतव्य पर जाने के लिए पूर्व-भुगतान कर आटो या टैक्सी की पर्ची खरीदते थे। एक सिपाही किसी आटो या टैक्सी को रोकता, ताकि प्री-पेड की पर्ची वाले लोग उनमें बैठकर जा सकें। यह काम करते हुए कोई भी सिपाही खुश नजर नहीं आता था। उसे हर आटो वाले से झिकझिक करनी पड़ती और उनके बहाने सुनने पड़ते।  
प्रीपेड बूथ एक चबूतरे पर बना हुआ था। इस चबूतरे से सटे एक बड़े गोल पत्थर पर पैर रखकर चबूतरे पर चढ़ना पड़ता था। वहां काफी लोग आटो या टैक्सी की प्रतीक्षा में खड़े रहते।
पत्नी और बेटी अपने बैग लेकर कार से उतरीं तो पत्नी ने बेटी से कहा, पापा को बाय करो। बेटी ने कार के शीशे से अपना चेहरा सटाकर बाय की। मैंने उसे फ्लाइंग किस दी और गाड़ी बढ़ा दी।
जब कार ईडीएम मॉल के मोड़ पर पहुंची, तब हर बार की तरह मैंने ख्यालों में पत्नी और बेटी को देखा, अब पत्नी पर्स में से रुपये निकाल कर प्रीपेड बूथ पर पर्ची ले रही होगी। पास खड़ी बेटी, पत्नी का हाथ खींच कर कोई दिलचस्प दृश्य दिखा रही होगी।  
घर पहुंचने से कुछ पहले, अपनी कॉलोनी के लिए मुड़ते ही मुझे एहसास हुआ कि अभी सुबह के 7:30 बजे हैं और धूप कितनी तीखी हो चली है। कार के खुले शीशे से गरम हवा भीतर आ रही थी। शायद रात को देर से सोने की वजह से मुझे ऐसा लग रहा था, लेकिन धूप तीखी तो हो ही चली थी। 
सड़क किनारे की झुग्गी-बस्ती में सुबह की हलचल शुरू हो गई थी। कुछ औरतें बाल्टियां और खाली डिब्बे  लेकर किनारे पर बने ट्यूबवैल के पास खड़ी थीं। इन झग्गियों में रहने वाले लोगों के शरीर हाड़-तोड़ मेहनत करने, कुपोषण, दिन भर पसीने से लथपथ रहने और न नहाने की वजह से काले पड़ चुके थे। वहीं, सामने के संभ्रांत लोगों की कालोनी थी। लोग मकानों की छतों पर सर्दियों में कुर्सियां डालकर बैठे नजर आते, उनके चेहरों और हाव-भाव में उस समय एक दर्प और जीवन में दूसरों से आगे निकल जाने का अंहकार नजर आता। वे लोग छत पर पड़ी सभी कुर्सियों पर नहीं बैठते थे। कुछ कुर्सियां खाली पड़ी रहतीं और लोग उनके हत्थों पर हाथ टिकाए खड़े रहते।
झुग्गियों में रहने वाली औरतों को मैंने शायद ही कभी धूप सेंकने के लिए बैठे देखा हो। वे हमेशा किसी न किसी काम में व्यस्त नजर आतीं। कभी मिट्टी के चूल्हे पर रोटियां सेंकती हुईं, कभी पतीले में खदबदाती दाल में कलछी चलाती हुईं,  कभी पानी भरती हुईं, कभी कपड़े धोकर उन्हें सूखने के लिए बड़े पौधों पर डालती हुईं और कभी लावारिस कुत्तों को भगाती हुईं। उन कुत्तों के काले शरीरों पर उनकी पीली आंखें अलग से नजर आतीं। झुग्गियों में रहने वाले आदमी शाम को दिखते, जब अंधेरा उतर आता था। सड़क किनारे लगे खंभों की बत्तियां जलने पर वे सब काली छाया की तरह दिखते।
गरम हवा का थपेड़ा कार के भीतर आया तो मैंने शीशा कुछ ऊपर चढ़ा दिया। एकाएक मुझे ख्याल आया, क्यों न मैं घर में पड़ा पुराने खिलौनों से भरा वह बैग लाकर झुग्गी-बस्ती के बच्चों को दे दूं। इसके लिए मुझे कार किनारे पर खड़ी करके, सिर खिड़की से बाहर निकाल कर आवाज लगानी पड़ेगी, ओ बच्चो, सुनो।
लेकिन मैंने यह विचार त्याग दिया। मुझे याद आया, जब पहली बार मैंने बेटी से कहा था कि वह अपने ऐसे खिलौने, जो उसे लगता है कि वह उनसे अब कभी नहीं खेलेगी या कम से कम वे खिलौने, जिन्हें उसने पिछले छह महीनों से छुआ भी नहीं था, वे सब खिलौने उसे छांट लेने चाहिए ताकि उन्हें गरीब बच्चों को दिया जा सके। तब बेटी ने मुझे कुछ हैरानी से देखा था। वह समझ नहीं पाई थी कि उसके खिलौने दूसरे बच्चों को कैसे दिए जा सकते हैं। वह एक छोटा सा क्षण था, जिसमें यह सब घटा था। 
मैं और पत्नी सोचने लगे थे कि अब कुछ नहीं हो सकता। टूटे-फूटे पुराने खिलौनों का अंबार यूं ही बढ़ता जाएगा। धीरे-धीरे ये अंबार घर की हर चीज को ढांप लेगा। आलमारियों में, बिस्तर पर, बाथरूम में, हर जगह खिलौने होंगे। हम सिर्फ इंतजार कर सकते थे। बाथरूम की शेल्फ पर तो कुछ पुराने खिलौने आ भी गए थे। इनमें पानी के टब में तैरने वाला एक स्टीमर था और पानी में डूबने उतराने वाला एक जोकर भी।
बेटी को दिया मेरा सुझाव शायद उसके मन में कहीं अटका रह गया था, जो बाद के दिनों में पल्लवित होता रहा।
पत्नी और बेटी के आगरा से लौटने के बाद आफिस से छुट्टी वाले दिन मैंने दूसरे सभी काम मुल्तवी कर दिए। तब शाम के चार बजे बज रहे थे। मैंने स्टडी टेबल पर पड़े पुराने खिलौनों का वह बैग उठाया और उसमें झांक कर देखा कि कितने खिलौने ठीक-ठाक हैं। 
अंततः हम वे खिलौने बच्चों को देने के लिए निकल पड़े।
कार में बगल की सीट पर बैठी बेटी के मन में त्याग की यह पहली स्पष्ट भावना थी। बैग पिछली सीट पर पड़ा था। बेटी खिड़की से बाहर देख रही थी। बैग में पड़े खिलौनों से पूरी तरह विलग। वह उत्साहित थी और उसके होठों पर हलकी स्वप्निल मुस्कराहट जाहिर कर रही थी कि वह कुछ कौतूहल भी महसूस कर रही है। 
मैंने बगल की सीट पर बैठी उस बच्ची को अपार स्नेह से देखा जो मेरी बेटी थी और आज अपने पिता के साथ अपने जीवन का पहला बड़ा त्याग करने जा रही थी।
झुग्गी-बस्ती के पास मैंने जहां कार रोकी, वहां पेड़ों की पत्तियों से धूप छन कर आ रही थी और जमीन पर धूप की कई छवियां बिखरी हुई थीं। झुग्गियों के पास कोई वाहन रुकने पर, वहां रहने वाले पुरुष, बच्चे और इधर-उधर आती-जातीं औरतें जान जाते हैं कि उनके जीवन में कुछ पल का व्यवधान आने वाला है और वे ठिठक कर, इस तरह देखने लगते, जैसे ये पल उनके लिए कोई निर्णायक बदलाव ला देने वाला होगा।  
सड़क किनारे खड़े आठ-दस नंग-धड़ंग बच्चे हमें देख रहे थे। मैं जानता था, जब तक वह बैग उठाकर बच्चों को नहीं दिखाऊंगा, वे दूर ही खड़े रहेंगे। कुछ पल के लिए उनकी माएं भी फ्रीज खड़ी रहेंगी। मैंने कार की पिछली सीट पर पड़ा बैग उठाया और बेटी को दिया। उसने बैग हाथ में पकड़ कर ऊपर किया। अब बच्चों को लहराता हुआ बैग ही नजर आ रहा था। उनकी छठी इंद्री जैसे जाग उठी। वे समझ चुके थे कि अब खड़े रहने का वक्त नहीं है और वे बंदूक की नली से निकली गोली की तरह भागे।
उन्होंने मधुमक्खियों के झुंड की तरह कार की खिड़की को घेर लिया। मैं कहे जा रहा था, आराम से खड़े रहो और थोड़ा पीछे हटो। लेकिन वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। मैंने बेटी के हाथ से बैग लिया और उन बच्चों की तरफ बढ़ा देना चाहा, जैसा मैं पहले भी करता रहा था, तब बैग में खिलौनों की जगह घर का दूसरा ऐसा सामान होता था जो लंबे अरसे से इस्तेमाल नहीं हुआ होता था। 
मेरे हाथ में लहरा रहे बैग की तरफ बच्चों के हाथ लपके ही थे कि बेटी ने लगभग छीनते हुए वह बैग अपनी गोद में रख लिया। उसके मुंह से बिल्ली की मिमियाहट जैसी आवाज निकली -नहीं।
कुछ क्षण खामोशी में गुजरे। अब तक फ्रीज खड़ीं माएं फिर अपने काम में व्यस्त हो गई थीं। हलकी हवा में पेड़ों के पत्ते धीरे-धीरे हिल रहे थे। सड़क पर इक्का-दुक्का वाहन गुजर रहे थे।
बेटी ने जतन और सावधानी के साथ एक खिलौना निकाला और खिड़की से बाहर बढ़ा दिया। दो-तीन जोड़ी हाथों ने खिलौना लपकने की कोशिश की पर खिलौना किसी एक को ही मिलना था। बाद के 5-10 मिनट यही क्रिया सुनियोजित तरीके से दोहराई जाती रही। बेटी का हाथ बैग में जाता, एक खिलौना बाहर आता और किसी एक बच्चे के हाथों में पहुंच जाता। बीच-बीच में बच्चे फिर उतावले हो उठते लेकिन बेटी ने खिलौने बांटने की अपनी गति न तेज की और न ही धीमी। हर खिलौना देते हुए, वह खिलौना पाने वाले बच्चे को नजर भर देखती, मानों कह रही हो, यह मेरा खिलौना था, इसके साथ मेरी कितनी ही यादें जुड़ी हैं, अब यह तुम्हारे पास जा रहा है।
आखिरी खिलौना देकर उसने मेरी तरफ मायूस नजरों से देखा। उसकी आंखें कह रही थीं, थैला खाली हो गया, लेकिन मन तो भरा ही नहीं। दो-तीन समूह बनाकर बैठ गए बच्चे उन खिलौनों की दुनिया में पूरी तरह डूब चुके थे।  
हम लौट रहे थे।
मुझे याद आ रहा था वह दिन, जब मैंने बेटी से कहा था कि वह पुराने खिलौने छांटकर अलग कर ले ताकि हम इन्हें गरीब बच्चों को दे सकें और बेटी ने अविश्वास भरी नजरों से ऐसे देखा था, मानो कह रही हो, ये मेरे खिलौने हैं, इन्हें मैं किसी और को कैसे दे सकती हूं।
इस समय वह कार की बंद खिड़की के शीशे से अपनी नाक सटाए, दूर होते जा रहे बच्चों को देख रही थी .. झुंड में बैठे उन बच्चों की हलकू अस्पष्ट ध्वनियों को, मन के कोने में सहेज कर रखती हुई।  
 
 

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