रूपक कथा : विष्णु सखाराम खांडेकर

मदन-मुद्रा

कलावती ! प्यारी, दुलारी, इकलौती बेटी !कोई ऐसी थोड़े थी, राजकुमारी थी वह ! प्रकृति ने मानो सौंदर्य के सारे उपादानों की वर्षा की थी उस पर।उसकी मुस्कान से वह बहुत खुश हुआ। हमेशा कृपणता से घिरी उसकी आत्मा में आज मानो कुबेर का संचार हुआ था।
यौवन के प्रांगण में प्रवेश करते ही उसकी सुकोमल कली खिलने लगी। फूल की खुशबू से सारी दुनिया रोमांचित होती थी। उसके सौंदर्य को देखकर पुष्करणी में खिले कमल के फूल शर्म से सिकुड़ जाते। अपने छोटे छौने से कानाबाती करने वाली कोई हिरनी जब उसे देखती तो वह इस तरह विकल हो जाती, मानो किसी व्याध ने तीर से उसका हृदय चीर दिया हो।
कलावती का सौंदर्य अब कविता का विषय बन गया था। कवि उसे देखकर गाने लगते-
दासी बने अप्सरा, इसकी रती हो विरागिनी ।
इसे देख, सारी दुनिया दिवानी।।
समृद्धि निरंतर मतवाली होती है जवानी हमेशा अंधी होती है। प्रशंसा हलाहल कुंभ होता है। जीवन से अपरिचित कलावती को इसकी कल्पना तक नहीं थी।उसने स्वयंवर का आयोजन किया। मनपसंद पति खोजने 
के लिए उसने अनूठी शर्त रखी।नगर के हर जगह ढिंढोरा पीटा गया। राज्य के कोने-कोने में
शर्त की चर्चा थी। शर्त से कवि, वीर, अमीर सब निराश हुए। कलावती की शर्त थी  कि 'जो कोई सुंदर मदन मुद्रा-बनाएगा, वह  उसी को वरमाला पहनाएगी।' 
काल पुरुष की पलकों के मुंदने- खुलने का क्रम जारी था।कालचक्र अखंड रूप से गतिशील था। देखा-देखी वर्ष गुजर गया। स्वयंवर का दिन आ गया। मंडप मदन-मुद्राओं से मंडित था। कलाकार आंखों में जान डालकर कलावती की प्रतीक्षा में खड़े थे। हाथ में वरमाला लिए कलावती मुद्राओं का मुआयना करने लगी। उसके साथ एक सखी थी। वह हर मुद्रा की खासियत बता रही थी। पहले तो उसे सारी मुद्राएं बड़ी सुंदर लगीं और एक जैसी भी। पर जैसे-जैसे वह उन्हें निरखने लगी, हर मुद्रा के छोटे-बड़े दोष उसे नजर आने लगे। सर्राफ के तराजू की तरह उसका मन पसोपेश में सोचता- 'यह सुघड़ तो है, पर जड़ है। और यह सुंदर जरूर है, पर विषयासक्त नजर आती है !'
मुआयना करती वह अंतिम मुद्रा के पास पहुंची। राजसेवकों ने उसे बेहूदा मानकर वहां रखा था। उसे देखते ही राजकुमारी दंग रह गई। अन्य मुद्राओं की भांति उस मुद्रा की आंखें मोहक नहीं थीं। वैसे होना भी असंभव था।शिल्पकार ने अपने मदन को अंधा बनाया था। वह तीर छोड़ने की मुद्रा में खड़ा था। 
कलावती ने सब शिल्पकारों की ओर देखा। उसे तीन युवा शिल्पकार पसंद आए-एक की चमकदार आंखें, दूसरे की गठीली भुजाएं, तीसरे के चुंबनातुर होंठ। वह सोच रही थी कि इनमें से किसने बनाई होगी वह मुद्रा? सखी ने उसे सचेत किया। वह सतर्क हुई। फिर वरमाला लेकर सिर झुकाए स्तब्ध खड़ी रही। कोई पास आ रहा था। उस अंधी मदन-मुद्रा के शिल्पकार को देखने को वह उत्सुक थी। पर अब वह खुद मुद्रा-सी बन गई थी। सामने खड़े पुरुष के गले में लगभग आंखें मूंदे ही उसने वरमाला डाल दी। पलभर उसकी आंखों के सामने कोहरे सा धुंधलापन फैल गया। उसकी अधखुली आंखों को असमय प्रौढ़ बने पुरुष का गंभीर चेहरा दिखाई दिया। उसके होंठों पर हंसी थी। पर कितनी अस्पष्ट थी वह। हंसी की अपेक्षा उसकी आंखों में भरी करुणा अधिक प्रबल थी।
ठिठककर उसने प्रश्न किया, "क्या यह सुंदर मुद्रा आपने बनाई है ?" उसने हामी भरी। उसकी हंसी किसी शैतान की सी लगी उसे ।
"आप ...आपने ?" उसने फिर प्रश्न किया। वह फिर हंस पड़ा। 
बड़े जीवट से वह चिल्लाई, "पत्थरदिल मत बनो। इस तरह मेरी दिल्लगी मत करो।"
उस गंभीर युवक ने कहा, "हां मैंने ही वह मुद्रा बनाई है।"
क्रोध से वह चिल्लाइ , "यह संभव नहीं, कतई संभव नहीं।" तुरंत शेष कलाकारों की ओर मुड़कर यह बोली, "इन...इन तीनों में से कोई होगा वह! " 
गले में पड़ी बरमाला के फूलों को सहलाते हुए वह बोला, "हे राजकुमारी, जब तुमने शर्त जाहिर की थी, तब में भी इन कलाकारों-सा खूबसूरत था। पर पिछले बरस भर की अवधि मैं निरंतर इसी मुद्रा में उलझा रहा। मुझे निरंतर इसी मुद्रा का स्मरण हो आता। हर पुरुष को मदन के जिस रूप का एहसास होता है, उसे मैं इस पत्थर में प्रतिबिंबित करने की आकांक्षा रखता था।"
राजकुमारी ने मदन-मुद्रा की ओर देखा। फिर हाथ जोड़कर बोली, स्वामी, इस दासी को क्षमा करो। आज तक अंधी थी मैं। अब मुझे सच्चा प्रकाश दिखाई दिया।"

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