खरोंच

वीरेंद्र मेंहदीरत्ता 

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यह उन दिनों की बात है जब हम पाकिस्तान में लायलपुर के पास मघियाने के भभराने मुहल्ले में रहा करते थे। सारे मुहल्ले में मेरे पिता लाला भगवानदास और चाचा हरपाल सिंह की दोस्ती मशहूर थी। मुझे आज भी याद है कि चाचा हरपाल सिंह को पिताजी जैसे ही नज़र आते, वहां से अभिवादन का स्वर फैलाकर संगीतात्मक लय में बोलते, 'महाशय जी, सत श्री..अकाल !' उसी स्वर तथा उसी लय में पिताजी का उत्तर आता, 'गुरमुखो, न..म..स्का..र!' 
और यदि नजदीक होते गलवकड़ी मारकर मिलते। इस तरह मिलते देखकर अकसर लोग कहा करते कि दोनों पिछले जन्म के जुड़वां भाई हैं। बरसों से दोनों इकट्ठे सैर पर जाते और रहट पर नहा-धोकर लौटते। जहां बैठे हैं, बस वहीं खाना-पीना चलता। दोनों परिवारों की औरतें खार और 'सोडे' से पीपे तपाकर सरकारी नलों पर मिलकर कपड़े धोने बैठतीं और बड़ी लयकारी में कपड़ों की धुलाई और पिटाई करतीं। तंदूर पर रोटी सेंकने की सांझ भी चलती। तंदूर तपाने का बालन एक लाती और रोटियां दोनों सेंक लेतीं। और बालन का विनिमय तो रोज की बात थी।
मेरे पिता आर्य समाजी थे और सुबह-शाम संध्या किया करते। किंतु मां को गुरमुखी अक्षरों के अलावा कुछ नहीं आता था। इसलिए मां नित्यप्रति सुखमनी साहब का पाठ करतीं और सुबह-शाम धर्मसाल ( पाकिस्तान में उन दिनों गुरुद्वारे को धर्मसाल भी कहा जाता था) मत्था टेकने जातीं। शनिवार को मैं भी उनके साथ धर्मसाल जाया करता था, क्योंकि वहां प्रसाद के रूप में घुघनियां (उबले काले चनों का प्रसाद 'घुघनियां' कहलाता है) बंटा करतीं, जो मुझे पसंद थीं। 
कुछ साल बाद जब मां बीमार रहने लगीं और उनके लिए धर्मसाल जाना कठिन हो गया, तब पिताजी ने घर में ही गुरु ग्रंथ साहब स्थापित करने के लिए एक नया कमरा बना दिया। मुझे याद है कि उन दिनों भी मेरे बाल सुलभ मन में यह प्रश्न बना रहता, क्या पिताजी के सर्वव्यापी ईश्वर का जो रूप है उससे मां के ईश्वर का चेहरा भिन्न होगा? जिंदगी भर पति-पत्नी के रूप में एकमेक होकर जीने वालों के भगवान भी क्या अलग-अलग हो सकते हैं?
और एक दिन चाचा हरपाल सिंह के घर जब लाला भगवानदास गए तो वे केशी स्नान कर दाढ़ी खोले धूप में बैठे हुए थे। उस दिन न जाने भगवानदास को क्या सूझी, बोले, 'पाले यार, तू तो बिलकुल हमारे ऋषि-मुनियों जैसा लग रहा है। वैसी ही खुली दाढ़ी और वैसी ही जटाएं। वाल्मीकि या विश्वामित्र भी तो ऐसे ही लगते होंगे!'
चाचा हरपाल सिंह ने हाथ जोड़कर सिर झुकाया और कहा, 'क्यों पाप चढ़ा रहा है? कहां ऋषि-मुनि और कहां हम!' चाचा का इतना कहना था कि पिताजी को जोश आ गया और उसके बाद पिताजी ने आर्य समाजी तार्किकता के साथ केशों और दाढ़ी- मूंछ रखने का सारा इतिहास समझा दिया। 
पिताजी को मंदिरों के कर्मकांड से एक धर्मग्रंथ की आराधना अधिक प्रिय थी। वे अकसर कहा करते थे-गुरु ग्रंथ साहब के आगे नतमस्तक होने का मतलब है-उसमें लिखे को स्वीकारना, उसमें लिखे को अपनाना, उसमें लिखे को जीवन में उतारना। वे मानते थे कि मूर्ति पूजा से पुस्तक उपासना तक की यात्रा, मानव चिंतन के विकास की सूचक है। पिताजी बड़े आदर और श्रद्धा के साथ कहा करते, इस दृष्टि से देखा जाए तो सिख धर्म हिंदू धर्म का विकसित रूप है।
जब पिताजी कन्या पाठशाला के लिए चंदा इकट्ठा करने निकलते, चाचा हरपाल सिंह उनके साथ हो लेते। मन ही मन वे जानते थे कि असल धर्म-कर्म यही है। पर जब कभी मेरी मां को धर्मसाल जाते देखते तब यह कहना भी न भूलते 'भाभी, साडे वलूं वी मत्था टेक देणां!'
परंतु विभाजन के समय धर्म पर उनका रहा-सहा विश्वास भी टूटने लगा था। उनकी बेटी सतवंत कौर को डेरा इस्माइल खां से आने में क्या कुछ नहीं झेलना पड़ा! उन्हें लगता कि वह धर्म भला किस काम का जो आदमी को बेहतर बनाने के स्थान पर हैवान बना दे ! अपने मुहल्ले के लोग हैवान ही तो बन गए थे जब उन्होंने धार्मिक नारों की मशालों से हिंदुओं और सिखों के घर जलाने शुरू कर दिए। यह तो ठीक समय पर फौज के आने से हम सभी सुरक्षित रिफ्यूजी कैंपों में पहुंच सके। उन्होंने तो कहर ढाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। 
विभाजन के समय मेरी उम्र अठारह की थी और चाचा हरपाल सिंह के बेटे हरमीत की सोलह थी। रिफ्यूजी कैंप में दोनों परिवारों को एक ही तंबू मिला था। शरणार्थियों के काफ़िले की पंद्रह दिन की यात्रा आज एक भयानक सपने की तरह लगती है। लाहौर स्टेशन के पास से गुजरते हुए लाशों से भरी खून से लथपथ गाड़ी देखकर हरमीत और मुझे इतनी दहशत हुई थी कि अमृतसर पहुंचकर भी दो दिन तक एक शब्द मुंह से नहीं निकला था और कई दिनों तक नींद नहीं आई थी। 
सच तो यह है कि चाचा हरपाल सिंह सूझ-बूझ से काम न लेते तो हममें से कोई भी न बच पाता। इन्हीं दिनों हरमीत और मैंने बहुत कुछ साथ-साथ देखा और एक साथ झेला। तभी अंतर्मन में हमने महसूस किया था कि एक जी दो जान किसे कहते हैं।
इसलिए हम दोनों ने फैसला किया कि एक ही शहर में एक ही इलाके में साथ- साथ जमीन अलाट करवाएंगे। इस साझेदारी में तो हमारी सोच काम कर रही थी, पर मेरी समझ में आज भी नहीं आता कि हमारे परिवारों का ढांचा एक-सा कैसे हो गया। हरमीत की भी पहली दो बेटियां हैं और मेरी भी। तीसरे नंबर पर उसका भी बेटा है और मेरा भी। मुझे हमेशा लगा है कि जब कभी भी इस बात का जिकर करूंगा, कोई इस पर विश्वास नहीं करेगा। शायद आप भी सोच रहे हैं कि कहानी के लिए यह बात घड़ ली है। यह घड़ी नहीं, बिलकुल वास्तविक है-सौ फीसदी सच्ची। 
बच्चों को समानता से एक बहुत बड़ा फायदा हुआ है। दोनों परिवारों के बच्चे दिन में बीसों बार आ-जाकर ताने-बाने की तरह से समय की चादर को हंसी-खुशी के रंगों में भर देते हैं। हरमीत के घर सभी बच्चें हों तो लगता है कि हरमीत की चार बेटियां हैं और दो बेटे हैं। हमारे यहां होते तो लगता है कि हमारा ही पूरा परिवार है। इससे एक घर की खुशियों से दूसरा घर भी चहकने लगता है। पर एक घर की तकलीफ़ से दूसरा उदास भी तो हो जाता है।
मकान बनवाते समय पैसों की तंगी की बात हरमीत के घर कैसे पहुंच गई, मैं नहीं जानता। मुझे तो पता उस समय चला जब दस हजार रुपये का ड्राफ्ट थमाते हुए बोला, 'जब सुविधा हो लौटा देना, कोई जल्दी नहीं।' 
मैं हैरानी से हरमीत की ओर देख रहा था। बिना मांगे बिना लिखत-पढ़त के क्या आज के जमाने में कोई इतनी राशि देता है। इससे पहले कि मैं उसका धन्यवाद करता, हरमीत वहां से जा चुका था। वैसे मैं जानता था कि मेरे मौसेरे भाई पन्नालाल के पास हमेशा इतना पैसा रहता है कि उनके लिए दस-बीस हजार निकाल सकना मुश्किल नहीं। पर उनसे मांगने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि मुझे कभी विश्वास ही नहीं हुआ कि मांगने पर पैसे मिल जाएंगे... और एक हरमीत है कि बिना मांगे ही ...
मकान बनाने के लिए उधार तो कइयों से लिया और चुका दिया। दस हजार रुपये हरमीत के भी लौटा दिए। पर लगता है कि हरमीत का उधार मैं कभी नहीं चुका पाऊंगा।
ठीक वक्त पर दी हुई मदद इन्सानी रिश्तों को किस तरह मजबूत करती है, इसका अहसास भी इन्हीं दिनों हुआ था। एक-दूसरे की मदद से एक नए समाज को बनाने की बात भी कुछ-कुछ समझ आने लगी थी।
हरमीत तो अकसर कहा करता कि क्या कभी ऐसा नहीं हो सकता कि दुनिया भर के सभी इन्सान भाइचारे के एक सूत्र में बंधकर जी सकें। क्या आपसी भेदभाव किसी तरह घटाया नहीं जा सकता ?... मिटाया नहीं जा सकता? हर काम के लिए हमें ईश्वर के सहारे की क्यों जरूरत होती है? शायद इसीलिए हरमीत ने यह फैसला किया कि उसके तथा उसके परिवार के जीवन में धर्म का कोई दखल नहीं होगा। इन्सानी कीमतों को ईमानदारी से जीने पर भी जिंदगी खूबसूरत बन सकती है। परंतु धर्म के नाम पर विरसे में उसने एक चीज़ जरूर पाई थी। वह था अपने पिता के अभिवादन का ढंग। प्रत्येक मिलने वाले का स्वागत 
अपने पिता की तरह ही 'सत श्री...अकाल' कहकर करता सड़क पर चलते हुए जब कभी मैंने नमस्कार करते हुए हाथ जोड़े, हरमीत ने हाथ ऊपर उठाकर पूरे जोश के साथ उसी लय में सत श्री अकाल को गुंजा दिया और हर बार यह सुनते हुए मुझे हरपाल चाचा की याद भी आई है।
इधर कई दिन से हरमीत और मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि पंजाब को यह क्या होता जा रहा है? इस दहशत और आतंक से घिरे पंजाब का क्या बनेगा ? मुझे लगता राजनीति धर्म की शक्तियों का दुरुपयोग कर रही है और धर्म दिशाहीन हो गया है। हरमीत कहता कि राजनीतिक नेता धर्म के नाम पर सिखों और हिंदुओं को जिस मुकाम पर लाकर खड़ा कर रहे हैं, वह बहुत खतरनाक है।
जून चौरासी को पंजाब खतरनाक मुकाम पर पहुंच गया। पंजाब के सभी शहरों में कर्फ्यू लग गया। रेडियो की खबरें भी जहर उगलने लगीं। टेलीविजन के दृश्य: दहशत उत्पन्न करने लगे। कर्फ्यू हटने पर अखबार आया तो खून के छींटों से भरपूर और कई जगहों पर खून का रंग इतना काला था कि शर्म आ रही थी... और लगा असल मायने में पंजाब आज लहूलुहान हुआ है-लहूलुहान और जख्मी।
कर्फ्यू उठते ही मैं हरमीत को मिलने गया। क्योंकि मैं जानता था कि स्वर्ण मंदिर के आसपास ही हरमीत की बुआ, हरमीत की मौसेरी बहन रहती हैं। हरमीत परेशानी के साथ टेलीफोन का डायल घुमा रहा था। अचानक मुझे सामने देखकर कुछ समझ नहीं पा रहा था बात कहां से शुरू करें।
स्थिति मेरी भी वही थी।
हम एक-दूसरे की ओर देख रहे थे और चुप। 
मैंने चुप्पी तोड़ी और कहा, 'सत श्री अकाल!' 
उसी समय ध्यान आया...
पर मैं तो हमेशा 'नमस्कार' किया करता था।

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